आज राखी बँध रहे थे, खूब राखी बँध रहे थे,
भाई भी सब सज रहे थे, पहन कुरते जँच रहे थे!
हीरे – मोती सोने – चाँदी, से सजे रेशम के धागे,
सोचने को पर बहुत कुछ इस सजावट से है आगे,
मन ही मन वादे कई हैं कुछ तो खुलकर भी कही हैं,
पर अधूरे रह गए जो वो ह्रदय में धँस रहे हैं!
यूँ तो हम हैं तीन भाई तीन बहनें भी हैं पाईं,
बहनें सारी बड़ी मुझसे, कष्ट में ना टरीं मुझसे,
कोई जो तकलीफ आई काली बदरी कोई छाई,
माँ से पहले खड़ी डटकर और हिम्मत भी बँधाई,
आज दुख से एक भरी है, उसपे मुश्किल यूँ पड़ी है,
चल बसे धन प्राण उसके, पूत एक जो दूर ही है!
जब ये दुर्घटना घटी थी, धरती ही मानो फटी थी,
हाय न कुछ कर सके थे, तीन उसके जो सगे थे,
खूब ढाढ़स ही बँधा कर, लौट अपने घर गए थे!
इक हमारी माँ बेचारी, उसने कोशिश कर ली सारी,
क्षीण तन दुःख सह न पाया, रोग पाकर वो भी हारी!
अब बहन रहती अकेली, खुद ही खुद की है सहेली,
किंतु राखी बँध रहे हैं, खूब राखी बँध रहे हैं!
भाई भी सब सज रहे हैं, पहन कुरते जँच रहे हैं!
- श्याम किशोर सिंह 'करीब' (मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत धन्यवाद श्री Laxman Dhami जी।
सादर नमस्कार आदरणीया KALPANA BHATT जी। प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार! निजी अनुभवों को पद्य में ढालकर लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
अच्छे भाव वाली कविता हुई है आदरणीय श्याम जी | बधाई स्वीकारें |
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