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दिल के तख़्त पे हाए हमने किस ज़ालिम को बिठा लिया
दिल की बस्ती को ही उजाड़ा उसने ऐसा काम किया।
'लुटे हुए अरमानों को वापिस लाऊंगा' बोला था
लेकिन जो था पास हमारे वो भी हमसे छीन लिया।
अब कहता है, इश्क़ में सब आशिक़ ऐसा ही करते हैं
मैंने भी गर झूठे वादे किए तो कोई पाप किया।
कितनी बार रकीबों ने अरमानों के सर काटे हैं
और वो बस इतना कहते हैं बुरा किया भई बुरा किया।
ये शुहरत का युग है झाड़ी ने ये बात समझ ली है
खार को गुलदस्ता कहने का तभी तो भारी दाम दिया।
अब लगता है पहला दिलबर इससे कुछ तो अच्छा था
इतना भी वो बुरा नहीं था जितना उसे बदनाम किया।
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आ. गुरप्रीत जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ....आ. समर सर सबकुछ कह चुके हैं
तंग क़ाफ़िये में दिया, सिया , पिया आदि भी इस्तेमाल हो सकते थे लेकिन आपने बेहतर निभाया...
बिठा थोडा चालू लगा... बैठा होना चाहिए जो बहर में नहीं आयेगा .
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या तो लाऊंगा ..बोला था ...या लायेंगे ..बोले थे (बारीक़ बात है)
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बाक़ी आपकी ग़ज़ल आपके दिल की आवाज़ है इसलिए बस मुस्कुरा रहा हूँ क्यूँ कि शाइरी में भई इस्तेमाल करने वाले आप पहले मिले हैं (बोलते सब हैं)....
ये देसीपन बनाए रखिये लेकिन कहन को आ. समर सर के बताये मुताबिक़ बेहतर भी करते चलिए..
शुभ शुभ
आदरनीय गुरप्रीत भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये दिले से बधाइयाँ आपको । आदरनीय समर भाई जी की अस्लाह के बाद मिसरे और निखर गये हैं ... बधाइयाँ ।
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