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दिल के तख़्त पे हाए हमने किस ज़ालिम को बिठा लिया 
दिल की बस्ती को ही उजाड़ा उसने ऐसा काम किया।

 

'लुटे हुए अरमानों को वापिस लाऊंगा' बोला था  
लेकिन जो था पास हमारे वो भी हमसे छीन लिया।

 

अब कहता है, इश्क़ में सब आशिक़ ऐसा ही करते हैं 
मैंने भी गर झूठे वादे किए तो कोई पाप किया।

 

कितनी बार रकीबों ने अरमानों के सर काटे हैं 
और वो बस इतना कहते हैं बुरा किया भई बुरा किया।

 

ये शुहरत का युग है झाड़ी ने ये बात समझ ली है 
खार को गुलदस्ता कहने का तभी तो भारी दाम दिया।

 

अब लगता है पहला दिलबर इससे कुछ तो अच्छा था 
इतना भी वो बुरा नहीं था जितना उसे बदनाम किया। 
              (मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 10:33pm
आदरणीय समर कबीर जी बहुत बहुत शुक्रिया.. आपके अनमोल सुझावों के लिए भी शुक्रिया..आपकी इस्लाह के मुताबिक ग़ज़ल में बदलाव कर लूँगा..सिर्फ़ एक छोटी सी बात दिल में आ रही है कि क्या मशहूरी जी जगह शोहरत करने से शेअर का अर्थ वही रहेगा सर जी या कोई और शब्द जैसे इश्तिहार जैसा कुछ इस्तेमाल किया जा सकता है.... दरअसल मेरा शब्द भंडार खासकर उर्दू में बहुत छोटा है..क्रुप्या मार्गदर्शन करें सर जी
Comment by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 10:25pm
इस ग़ज़ल के माध्यम से जो बात कहने कि कोशिश कि गई है, क्या ग़ज़ल उसे कहने में सफल हो पाई है ?? क्रुप्या बताइएगा
Comment by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 10:22pm
आदरणीय नीलेश जी शुक्रिया...इस ग़ज़ल में कई बातों को नज़रन्दाज़ किया है..मानता हूँ .केवल अपनी बात कहने तक ही केंद्रित रहा.आपकी बातों का ध्यान रखूंगा
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 5, 2017 at 10:16pm
आदरणीय गुरुप्रीत जी दिल के भावों को बखूबी पह किया है आपने प्रतिक्रियाओं के माध्यम से बहुत उम्दा जानकरी हासिल हुयी उस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 9:54pm

आ. गुरप्रीत जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ....आ. समर सर सबकुछ कह चुके हैं 
तंग क़ाफ़िये में दिया, सिया , पिया आदि भी इस्तेमाल हो सकते थे लेकिन आपने बेहतर निभाया...
बिठा थोडा चालू लगा... बैठा होना चाहिए जो बहर में नहीं आयेगा .
.

या तो लाऊंगा ..बोला था ...या लायेंगे ..बोले थे (बारीक़ बात है)
.
बाक़ी आपकी ग़ज़ल आपके दिल की आवाज़ है इसलिए बस मुस्कुरा रहा हूँ क्यूँ कि शाइरी में भई इस्तेमाल करने वाले आप पहले मिले हैं (बोलते सब हैं)....
ये देसीपन बनाए रखिये लेकिन कहन को आ. समर सर के बताये मुताबिक़ बेहतर भी करते चलिए..
शुभ शुभ  


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Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2017 at 8:36pm

आदरनीय गुरप्रीत भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये दिले से बधाइयाँ आपको । आदरनीय समर भाई जी की अस्लाह के बाद मिसरे और निखर गये हैं ... बधाइयाँ ।

Comment by Mohammed Arif on May 5, 2017 at 5:31pm
आदरणीय गुरप्रीत जी आदाब, बेहतरीन मात्रिक बह्र वाली ग़ज़ल । शे'र दर शे'र के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब सबकुछ बतला चुके हैं । उनकी बातों पर ग़ौर करें ।
Comment by Samar kabeer on May 5, 2017 at 2:52pm
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'उल्टा जो था पास हमारे वो भी हमसे छीन लिया'
इस मिसरे में 'उल्टा'शब्द मुनासिब नहीं लगता,इसकी जगह 'लेकिन'शब्द उचित होगा :-
'लेकिन जो था पास हमारे वो भी हमसे छीन लिया'

'मैंने भी गर झूटे वादे किये तो कैसा पाप किया'
इस मिसरे में 'कैसा'शब्द की जगह 'कोई'शब्द रखना उचित होगा:-
'मैंने भी गर झूटे वादे किये तो कोई पाप किया'

'मशहूरी का युग है झड़ी ने ये बात समझ ली है'
इस मिसरे में 'मशहूरी'शब्द ही नहीं है,इसलिये इस मिसरे को ऐसा कह सकते हैं:-
'ये शुहरत का युग है झाड़ी ने ये बात समझ ली है'

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