[आधार छंद : 'विधाता']
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कभी अपने मुसीबत में, ज़रा भी काम आये हैं,
जिन्हें समझा नहीं था दोस्त वे नज़दीक लाये हैं।
जिसे माना, जिसे पूजा, उसे घर से भगा कर के,
बुढ़ापे में, जताकर स्वार्थ, ममता को भुलाये हैं।
तुम्हारे पास दिल रख तो दिया गिरवी भरोसे पर,
पता मुझको चला तुमने, हज़ारों दिल दुखाये हैं।
कभी वे फोन पर बातें करेंगी, स्वर बदलकर के,
कभी वे नेट पर चेटिंग, झिलाकर के बुलाये हैं।
न जाने क्यों ,उन्हें आता, मज़ा शर्मा लजाकर के,
हमारी जान पर आती, रिझाकर के फँसाये हैं।
कमी मुझमें नहीं कोई, कमी तुझ में नहीं कोई,
ज़माने का चलन दोषी, मुहब्बत को डराये हैं ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शहज़ाद भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिली मुबारक बाद आपको । बस - जा कर के , खा कर के इसे लेखन मे सही नही माना जाता , बोल चाल तक सही हैं , खयाल कीजियेगा ॥ वैसे मिथिलेश भाई जी ने भी याद दिलाया है ॥
विधाता छंद में लिख्खी ग़ज़ल, शहजादजी बढ़िया
बधाई लें बहुत हमको हज़ज़ के रुक्न भाये हैं.
ग़ज़ल के तीन मिसरों में लिखा है आपने 'कर के'
ज़रा सा ध्यान हो इन पर, सभी फिर खूब छाये हैं
बहुत सुन्दर उस्मानी साहब। उत्तम रचना।
//kami mujhme nahi koi ,kqmi tujhme nhi koi
zamane ka chlan doshi,muhbbt ko draye hain// umda lekhan aadrniy sheikh sahb
कमी मुझमें नहीं कोई, कमी तुझ में नहीं कोई,
ज़माने का चलन दोषी, मुहब्बत को डराये हैं ।---वाह ! वाह ! क्या खूब ये अंदाज़ आपने आज हमको दिखाए है। बधाई आपको की आपने बेहद शानदार ग़ज़ल की आमद की है। बधाई कबूल फरमाइए आदरणीय शेख शहज़ाद जी। .
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