प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।
सादर
गणेश जी बाग़ी
Comment
आदरणीय बागी सर.........रचना को ओबीओ के सौहार्द के निमित्त मंच से हटा कर आपने बहुत उत्तम कार्य किया है।
चूँकि भावनाएँ ही हैं जो हमें एक दूसरे से जोड़ती हैं...अतः आपका यह निर्णय स्वागत योग्य है।
हाँ एक बात है कि मैंने एक मुक्तक, इस प्रकरण का ज्ञान होते ही लिखा था......जो fb पर पोस्ट भी है......उसे मैं अब ज़रूर लिखूँगा
कुछ भी गलत हो लेकिन लब खोलना मना है
निरपेक्षता का मतलब 'सच बोलना मना है'
वह दौर अब नहीं है कोई कबीर होए
पर्दा ढकोसलों का अब खोलना मना है
सम्माननीय एवं आदरणीय सदस्यगण,
एक बिन्दू को बलात ही मोड़ का आशय मिला प्रतीत तो हुआ, किन्तु, सर्वसम्मति प्रभावी रही. शुभ-शुभ ..
फिरभी, कई बातें इस आलोक में मुखर हुई हैं जिनको अब ओबीओ का प्रबन्धन सापेक्ष रख कर ही अग्रसरित होगा. ऐसा ही होना चाहिए.
आगे की बातें आगे.
शुभातिशुभ
सौरभ
बहुत बहुत शुक्रिय: जनाब योगराज प्रभाकर साहिब ।
साथियों, ओ बी ओ के प्रधान संपादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में इस कविता को पटल से हटा दिया गया है ।
सादर ।
आदरणीय योगराज जी , आपके इस फ़ैसले का हम तहे दिल से सम्मान करते हैं । आपने इस मंच को बहुत कुछ दिया है़ हम सब के लिए एक मंदिर जैसा है़ हम कभी नहीं चाहेंगे कि किसी भी वज़ह से ये कुरुक्षेत्र का मैदान बने इसके कुछ उसूलों नियम कायदो के कारण हम इससे बंधे हुए हैं आपने मंच की गरिमा के हित में फैसला लिया है़ । आपका दिल से बहुत बहुत आभार ।
कुछ घरेलू व्यस्तताओं के चलते मैं इस चर्चा में भाग नही ले पाया. मैंने सभी सम्माननीय साथियों की टिप्पणियाँ आज ही पढ़ींl सच कहूँ तो मुझे यह सब पढ़कर बहुत कष्ट पहुँचाl आपने अपनी इस कविता में बकौल आपके भले ही अपनी तरफ से जानबूझकर कुछ न कहा हो, लेकिन इससे संदेश ग़लत जा रहा हैl ऐसा लगता है कि किसी धार्मिक समुदाय पर कटाक्ष किया गया होl ओबीओ पहले दिन से ही अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए जाना जाता रहा है, और हमें भविष्य में भी इससे इतर नहीं जाना हैl इसलिए बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए यह रचना पटल से हटा लेनी चाहिए. मेरी बाकी सम्माननीय साथियों से भी बिनती है कि वे भड़कने की बजाय संयम के काम लें और मंच छोड़ने-छुड़ाने वाली भाषावली से गुरेज़ करेंl
'इससे पहले कि ख़बर तर्क-ए-तअल्लुक़ की उड़े
ला मेरे हाथ मे ज़हराब का प्याला रख दे'
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब(प्रधान सम्पादक ओबीओ)आदाब, गुज़ारिश है कि बराह-ए-करम अपना सम्पादक धर्म निभाएँ ।
आदरणीय नीलेश भाई/समर साहब
कई बार हम का प्रयोग साहित्य में एकवचन के रूप में होता है और हुआ है ।
चुकी मैं एडमिन ग्रुप में हूँ इसलिए मेरी रचना मॉडरेशन की प्रक्रिया से नही गुजरती और प्रधान संपादक से बगैर पूछे प्रकाशित हो जाती है, ऐसा इस वेबसाइट की बनावट ही है जिसमे हम लोग कुछ नही कर सकते ।
मुझे अब भी नही लगता है कि यह कविता किसी धर्म को केंद्रित है फिर भी मैं प्रधान संपादक के निर्णय का स्वागत करूंगा । यदि उन्हें भी लगता है कि यह रचना इस पटल से हटा लेनी चाहिए तो मैं हटा लूंगा।
सादर ।
आ. बागी जी,
कल विस्तृत टिप्पणी नहीं कर सका . आज करता हूँ ..
.
//साथियो, सबसे पहले अनुरोध है कि इस कविता को संकुचित रूप से न लेकर तनिक उदारतापूर्वक लें, और निम्न तथ्यों पर ध्यान देते हुए खुले हृदय से विवेचना करें ।// क्या आपने उतनी ही उदारता दिखाते हुए यह कविता लिखी है जितनी उदारता की आप अपेक्षा कर रहे हैं?
//यह कविता एक एकल चरित्र के मनोभाव को लेकर लिखी गयी है ।// हम का बहुवचन के रूप में प्रयोग और उसपर तुर्रा यह कि एकल चरित्र के मनोभाव ..
//जहाँ धर्म विशेष की नायिका की दशा के माध्यम से एक पूरे वर्ग पर लानत भेजी गयी है।// यहाँ तो लानत नायिकाओं पर भेजी गयी है हुजूर .. यहाँ आपने नायिकाओं को बलत्कृत, अपने ममेरे भाइयों की ब्याहता और गजबजाती गलियों की या कोठे की वस्तु बता दिया है... है न??
//कृपया कविता को इसलिए न नकारें कि मेरे मोहतरम श्रेष्ठ भाईतुल्य आदरणीय समर साहब और अजीज दोस्त नीलेश जी ने अपनी गलतफहमी में स्वीकार नही किया है // मैं किसी ग़लतफ़हमी का शिकार नहीं हूँ और आपके अंदर की घृणा को मेरी ग़लतफ़हमी कह कर आप बाख जाएंगे और आपकी निंदा न होगी ये सोचना ग़लत है .
//आलोचना कविता की होनी चाहिए न कि कवि की ।// आलोचना कविता ही की हो रही है और कविता जिन भावों को अभिव्यक्त कर रही है, उनकी हो रही है.. अब वो भाव आपके हैं तो कोई क्या करे
.
//ओ बी ओ अपनी आज तक की यात्रा कई अर्थों में यों ही नहीं तय नहीं कर रहा है । पटल पर रचनाओं का हमेशा से तथ्य सर्वोपरी रहा है, न कि रचनाकार और पाठक विशेष के मत ।// बड़ी विनम्रता से कह रहा हूँ कि ये रचना किसी और ने पोस्ट की होती तो सम्पादक और संस्थापक मण्डल इसे हटा चुका होता.. क्यूँ कि यह है ही इतनी घृणा उकेरने वाली .
.
//पुनः मैं दोहराना चाहता हूँ कि इस कविता को एक चरित्र विशेष के मनोभाव तक सीमित कर ही देखें और इसको किसी सम्प्रदाय विशेष से जोड़ कर न देखें।//
तो क्या मैं इसे ब्रह्मा द्वारा अपनी ही पुत्री के साथ संसर्ग क्र के सृष्टि रचना से जोड़ कर देक्युन या देवराज इंद्र द्वारा बलात्कार की गयी अहिल्या से जोडूं या अपनी गर्पभवती त्नी को वो कठोर तीन शब्द भी न कहते हुए जंगल में छुडवा देने वाले राम से जोड़ लूँ?? आप से ऐसी अपेक्षा कतई नहीं थी..
अंतत:..
मैंने एक फेसबुक पोस्ट पर श्री वीनस केसरी जी को भी सलाह दी थी कि घृणा फैलाने वाली पोस्ट्स भक्तों का काम है, साहित्यकारों का नहीं.. मैंने उन से भी अनुरोध किया था कि वो पोस्ट हटा लें अन्यथा शर्मिंदा होना पड़ सकता है..वो नहीं माने और उन्हें हवालात में बैठना पड़ा, पुलिस द्वारा पकडे जाने और उसी हाल में अखबार में छपने की पीड़ा झेलनी पड़ी..
वो भी दिल के बुरे नहीं हैं.. न उनके मनोभाव वैसे रहे होंगे लेकिन आवेश में उन्होंने ऐसा कुछ लिख दिया था.. आप भी हो सके तो अपनी रचना के होने पर पुनर्विचार करें.
मैं मेरी 300 रचनाएँ कूड़ेदान में डाल कर बैठा हूँ..
साहित्यकार को सह्रदय और खुले दिल का होना चाहिए..
जब श्री राम एक धोबी के कहने में अपनी पत्नी का त्याग कर सकते हैं तो हम लोग धोबी भी नहीं हैं, आप राम भी नहीं और ये रचना सीता भी नहीं कि जिसे त्यागा न जा सके..
ये मेरी इस पोस्ट पर अंतिम टिप्पणी है.. रविवार से मैं अपनी रचनाएं मंच से स्वयं ही हटाने का कार्य करूंगा..और 10 तारीख़ से पहले पहले यहाँ से चला जाऊंगा.
मेरे अंदर का कवि मुझे घृणा की भाषा से दूर रहने को प्रेरित करता है. कवि का प्रहार समाज में व्याप्त कुरीतियों पर होना चाहिए न कि उन कुरीतियों से पीड़ा पा रहे लोगों पर.
अस्तु:
//आप तो पूर्व से ही ठान कर बैठे हैं कि कविता हटा दी जाय//
ऐसा नहीं है,बल्कि ये बात मैं आपके लिए कहूँगा कि आपने ज़रूर ये ठान लिया है कि आप इस कविता को नहीं हटाएँगे ,वरना एक कविता की बिसात ही क्या है?
मैं आपसे फिर यही अर्ज़ करूँगा कि आप इस कविता को हटा लें और अपनी उदारता दिखाएँ ।
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