झूठी बातें कह कर दिनभर जब झूठे इठलाते हैं
हम सच के झण्डावरदारी क्यों इतना शर्माते हैं।१।
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अफवाहों के जंगल यारो सभ्य नगर तक फैल गये
क्या होगा अब विश्वासों का सोच सभी घबराते हैं।२।
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कैसे सूरज चाँद सितारे अब तक चुनते आये हम
बात उजाले की कर के जो नित्य अँधेरा लाते हैं।३।
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नित्य हादसे होते हैं या उन में साजिश होती है
छोटा सा ये राज भला क्यों समझ नहीं हम पाते हैं।४।
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नित्य बदल तारीखों जैसे लोग यहाँ पर खूब रहे
एक हमीं है जैसा चेहरा वैसा ही दिखलाते हैं।५।
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राजनीति ने रीत यहाँ की बदली है बेहूदेपन तक
सीख हमीं से कौशल बच्चे हमको ही समझाते हैं।६।
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कोशिश तो बेढब होती है सागर पार उतरने की
बेबस होके फिर साहिल पर लौट मुसाफिर आते है।७।
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मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार ।
बहुत ही उम्दा गज़ल कही है। बधाई, मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई रवि जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण भाई, आदाब। बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है, शेर दर शेर दाद और मुबारक़बाद क़ुबूल करें।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार..
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी।बेहतरीन गज़ल।
राजनीति ने रीत यहाँ की बदली है बेहूदेपन तक
सीख हमीं से कौशल बच्चे हमको ही समझाते हैं।६।
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