बह्र हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
सियासत में शरीफ़ इन्साँ कोई हो ही नहीं सकता
सियासतदान सा शैताँ कोई हो ही नहीं सकता
जो नफ़रत की दुकानों में है शफ़क़त ढूँढता फिरता
उस इन्साँ से बड़ा नादाँ कोई हो ही नहीं सकता
निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का
तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता
बिरादर को बिरादर से रफ़ाक़त अब नहीं बाक़ी
ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता
जहाँ फ़िरक़ा-परस्ती और जहालत हो दिमाग़ों में
तरक़्क़ी का वहाँ इम्काँ कोई हो ही नहीं सकता
उसे हासिल है सब कुछ जिसको कुछ हाजत नहीं बाक़ी
गदागर से बड़ा सुल्ताँ कोई हो ही नहीं सकता
न आना है रज़ा से और न जाना अपने बस में है
हयात-ए-ख़्वार सा ज़िंदाँ कोई हो ही नहीं सकता
ब-ख़ूबी आश्ना है दिल तुम्हारे तीर-ए-मिज़्गाँ से
नुकीला उससे भी पैकाँ कोई हो ही नहीं सकता
न कर बर्बाद अपना वक़्त चारागर तू जाने दे
मरीज़-ए-इश्क़ का दरमाँ कोई हो ही नहीं सकता
न तुम जानो न हम जाने कि अगले पल में क्या होगा
तो फिर से मिलने का पैमाँ कोई हो ही नहीं सकता
कई हिस्सों में है तक़सीम मेरी ज़िन्दगी 'शाहिद'
मिरे अफ़साने का उनवाँ कोई हो ही नहीं सकता
(मौलिक व अप्रकाशित)
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मैंने हाल ही में उस्ताद-ए-मोहतरम समर कबीर साहब का एक शेर पढ़ा:
ये सियासत दाँ हैं जितने दोस्तो
मैंने ये ग़ज़ल उसी शेर से प्रेरणा ले कर कही है। उन्हीं से प्रेरित, और उन्हीं के चरणों में समर्पित...
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई, आदाब। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया।
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर कबीर साहब, सादर प्रणाम। नाचीज़ की ग़ज़ल को अपना आशीर्वाद देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। उस्ताद-ए-मोहतरम, आपने सभी शेरों में बेहद ख़ूबसूरत और ज़रूरी इस्लाह दी है। 'जानें' को 'जाने' लिखना मेरी लापरवाही और नालायक़ी है। हर बार ग़ज़ल कहता हूँ तो चुनौती होती है कि कोई ग़लती या कमज़ोरी ना हो। आपका आशीर्वाद रहा तो शायद किसी दिन मुझे भी शेर में शिल्प की ये कमज़ोरियाँ और ऐब देखने की तौफ़ीक़ मिल सके। आपका हार्दिक आभार, सर।
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब,आपने मेरे एक शैर को अपनी ग़ज़ल का मर्कज़ी ख़याल बनाया इसके लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का
तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता'
इस शैर का शिल्प कमज़ोर है, तक़ाबुल-ए-रदीफ़ भी है, शैर को यूँ कह सकते हैं:-
'सदाक़त का जनाज़ा रोज़ निकले इससे बढ़ कर तो
तबाही का यहाँ सामाँ कोई हो ही नहीं सकता'
'ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,इसे यूँ कर सकते हैं:-
'मियाँ इससे बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं सकता'
'न तुम जानो न हम जाने कि अगले पल में क्या होगा'
इस मिसरे में 'जाने' को "जानें" कर लें ।
आदरणीय राम भाई, बहुत बहुत शुक्रिया आपकी हौसला-अफ़ज़ाई का।
आपको बहुत बहुत बधाई अपने बिलकुल सही लिखा आज के इस सियासत के युग में यह अक्षर सह सही है
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