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क्या आरज़ू थी दिल तेरी और क्या नसीब है
चाहा था टूट कर जिसे वो अब रक़ीब है।
पलकों की छाँव थी जहाँ है ग़म की धूप अब
वो भी मेरा नसीब था ये भी नसीब है।
ऐसे बदल गये मेरे हालात क्या कहूँ
अब चारा-गर कोई न ही कोई तबीब है।
कैसे मिले ख़ुशी हों भला दूर कैसे ग़म
मुश्किल कुशा के साथ वो मेरा रक़ीब है।
उसने बड़े ही प्यार से बर्बाद कर दिया
अपनी तबाही का भी ये क़िस्सा अजीब है।
वो भी उजड़ ही जाएगा इक दिन मेरी तरह
लूटा बता के जिस ने के मेरा हबीब है।
क्या रह गया 'अमीर' अब उजड़े दयार में
मैं हूँ ख़ला है यास है मंज़र मुहीब है।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आदाब, आदरणीय सबसे पहले आपकी टिप्पणी न देख पाने के लिए माज़रत ख़्वाह हूँ। आदरणीय ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया अदा करताा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आइंदा भी आपकी नवाज़िश क़ायम रहेगी। सादर।
आद0 अमीरुद्दीन साहिब सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कहे आप। इसपर आदरणीय समर साहब की इस्लाह और आपकी चर्चा भी ज्ञानप्रद है। बधाई स्वीकार कीजिये इस बेहतरीन ग़ज़ल पर।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये दिल से शुक्रिया।
जनाब अमीरूद्दीन 'अमीर' साहिब
आदाब
बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँँ.
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, आदाब।
ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।
//'चाहा था टूट कर जिसे वो अब रक़ीब है'
'रक़ीब' को चाहा नहीं जाता,बल्कि 'रक़ीब' को यूँ समझें कि एक शख़्स के दो चाहने वाले एक दूसरे के रक़ीब होते हैं,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:
'समझा था जिसको यार वो मेरा रक़ीब है'
मैं आपकी बात से सौ फीसदी मुत्तफ़िक़ हूँ मगर जनाब यहाँ भाव यह है कि पहले यक़ीनन वो मेरा हक़ीक़ी महबूब ही था वो (जो) अब रक़ीब (बन गया) है।
मुहतरम आपका तजवीज़ शुदा मिसरा भी कमाल है मगर भाव बदल रहा है, इसलिए माफ़ी चाहता हूँ।
//'लूटा था जिस ने कह के वो मेरा हबीब है'
इस मिसरे में 'कह के' शब्द भर्ती का है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'लूटा है जिसने मुझको वो मेरा हबीब है' // जनाब इस तजवीज़ पर फ़ौरन अमल करता हूँ। दीगर मालूमात के लिए भी बहुत बहुत शुक्रिया।
मुहतरम, पारिवारिक कारणों से ओ बी ओ से दूर रह कर भी फोन पर बात करने की इजाज़त देकर बड़ी महरबानी की है, बहुत ज़रूरी होने पर ही आपको तकलीफ़ दी जायेगी, हम दुआ और उम्मीद करते हैं कि फ़राग़त के बाद आप तरही मुशाइर: के इलावा भी जल्द ही ओ बी ओ पर जल्वा अफ़रोज़ होंगे। सादर।
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'चाहा था टूट कर जिसे वो अब रक़ीब है'
'रक़ीब' को चाहा नहीं जाता,बल्कि 'रक़ीब' को यूँ समझें कि एक शख़्स के दो चाहने वाले एक दूसरे के रक़ीब होते हैं,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'समझा था जिसको यार वो मेरा रक़ीब है'
'लूटा था जिस ने कह के वो मेरा हबीब है'
इस मिसरे में 'कह के' शब्द भर्ती का है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'लूटा है जिसने मुझको वो मेरा हबीब है'
'क्या रह गया 'अमीर' अब उजड़े दयार में'
इस मिसरे में आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूँ कि सहीह शब्द "दियार" है ।
पारिवारिक कारणों से कुछ दिन ओबीओ पर हाज़िर नहीं हो सकूँगा,सिर्फ़ तरही मुशाइर: में शिर्कत होगी,अगर आपको कहीं मेरी ज़रूरत महसूस हो तो फ़ोन पर सम्पर्क कर लें ।
जनाब रूपम कुमार 'मीत' जी, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।
मुहतरम जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब, आदाब।
ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी, दाद, और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया। प्री क्वालीफाई हुआ, अब मेन की बारी।
उस्ताद मुहतरम की नज़र ए मुबारक और कमेंट्स का शिद्दत से मुंतज़िर हूँ।
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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