मापनी
२२१२ १२१२ ११२२ १२१२
प्यारी सी ज़िंदगी से न इतने सवाल कर,
जो भी मिला है प्यार से रख ले सँभाल कर.
तदबीर के बग़ैर तो मिलता कहीं न कुछ,
सब ख़ाक हो गए यहाँ सिक्का उछाल कर.
पहले से कम नहीं हैं हमारी मुसीबतें,
फिर से कोई नया तू खड़ा मत वबाल कर.
दिल में जगह बचे न अगर ख़ुद के ही लिए,
इतने कभी रखो न वहम मन में पाल कर.
शिकवा-गिला किया न ज़माने के सामने,
अपना ख़याल कर कभी उनका ख़याल कर.
मुरझा रहे हैं फूल तो कलियाँ उदास हैं,
ख़ुश्बू मेरे चमन की तू फिर से बहाल कर.
कैसे न हो यक़ीन तेरी बात पर ‘बसंत’
तूने तो रख दिया है कलेजा निकाल कर.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया, सादर नमन स्वीकार करें
आद0 बसन्त कुमार शर्मा जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। इस पर रवि भसीन साहब और अमीरुद्दीन साहिब के प्रतिक्रिया से सीखने को भी मिला। बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीय Dayaram Methani जी सादर नमस्कार , आपकी हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब आदाब , आपने सहीह कहा इसकी बह्र 221 / 2121 / 1221 / 212 है
आपकी तरमीम का दिल से शुक्रिया
बहुत कुछ सीखने मिल रहा आप लोगों से
सादर नमन, इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें , बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरणीय अवि भसीन साहिब को आदाब, आपने सहीह कहा इसकी बह्र
मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212 ही है
जब हम सिमट के आपकी बाँहों में आ गए
लाखों हसीं ख़्वाब निग़ाहों में आ गए
इस गाने को ही आधार मानकर यह ग़ज़ल कहि थी मैंने
इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें सादर , शुक्रिया आपका
साहिब, जो बह्र आपने इस्तेमाल की है वो ये है:
मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
ये बहुत ही मशहूर बह्र है, और इसमें कई लाजवाब ग़ज़लें हैं, जैसे:
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्अ' है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
(उस्ताद इब्राहिम ज़ौक़)
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह
(हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन)
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया
(दाग़ देहलवी)
आपकी ग़ज़ल के तमाम अशआर इस बह्र के मुताबिक़ सहीह हैं, कृप्या तक़्तीअ करके ज़रूर देखियेगा।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें।
आपने जो बह्र लिखी है उस बह्र के मुताबिक़ आपकी ग़ज़ल का एक भी मिसरा बह्र में नहीं है।
अलबत्ता आपने ग़ज़ल की शुरूआत जिस मिसरे से की है उस की तक़तीअ करने पर उस की बह्र 2212/121/121/1212 मालूम होती है, हालांकि इस बह्र के मुताबिक़ भी सिर्फ नौ मिसरे शैर 1 का ऊला, शैर 2 के दोनों, शैर 3 का ऊला शैर 5 के दोनों, शैर 6 के दोनों, और शैर 7 का सानी बह्र में हैं, इनके इलावा तमाम मिसरे बह्र से ख़ारिज हैं। ज़रा एक बार फिर से तक़तीअ और बह्र पर ग़ौर फ़रमाएं।
चौथे शैर का मिसरा ए ऊला "दिल में जगह बचे न अगर ख़ुद के ही लिए" में लफ़्ज़ "अगर" की वजह से मिसरे का शिल्प गड़बड़ा गया है। इसे चाहें तो यूँ कर सकते हैं : "ख़ुद के लिए भी दिल में जगह न बचे कहीं"।
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । उत्तम गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
प्यारी सी ज़िंदगी से न इतने सवाल कर,
जो भी मिला है प्यार से रख ले सँभाल कर. ....... आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी, अति सुंदर गज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें।
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