भारतवर्ष के इतिहास में पृथ्वीराज चौहान को अपने समय का सबसे बड़ा योद्धा माना जाता है| जिसकी वीरता के किस्से उस समय पूरे भारत में गूंज रहे थे| पृथ्वीराज चौहान अजमेर राज्य का स्वामी बना तो उसके चाचा पृथ्वीराज को चौहान राज्य का वास्तविक अधिकारी नहीं मानते थे। इसी कारण पृथ्वीराज के चाचा अपरगांग्य ने पृथ्वीराज के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो पृथ्वीराज ने अपने चाचा को परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इस पर पृथ्वीराज के दूसरे चाचा व अपरगांग्य के छोटे भाई नागार्जुन ने पृथ्वीराज के विरुद्ध विद्रोह करके गुड़गाँव पर कब्जा कर लिया। 1178 ई. में हुए गुड़गाँव के युद्ध में पृथ्वीराज ने अपने मंत्री कैमास की सहायता से इस विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन कर दिया। पृथ्वीराज ने 1182 ई. में भण्डानकों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करके उनका दमन कर दिया। इन विजयों के बाद पृथ्वीराज तृतीय ने दिक्विजय की नीति अपनाते हुए पड़ोसी राज्यों के ऊपर आक्रमण करने लगा और उनको जीतकर अपने राज्य में मिलाने लगा। चंदेलों का दमन महोबा विजय (1182 ई.) एक बार पृथ्वीराज के सैनिक दिल्ली से युद्ध करके लौट रहे थे, रास्ते में महोबा राज्य में उसके कुछ जख्मी सिपाहियों को चंदेल राजा ने मरवा दिया। उस समय महोबा राज्य का शासक परमदी देव चंदेल था। अपने सैनिकों की हत्या का बदला लेने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर महोबा विजय के लिए निकल पड़ा। 1182 ई. में पृथ्वीराज की सेनाओं ने नरायन के स्थान पर अपना डेरा डाला। यह देखकर परमदी देव घबरा गया और उसने शीघ्र ही अपने पुराने सेनानायक आल्हा और उदल को राज्य की रक्षा के लिए वापस बुलाया। जब दोनों आए तो दोनों दलों के मध्य तुमुल का युद्ध हुआ। इस युद्ध में उदल वीरगति को प्राप्त हो गए उसके बदले में जब आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को मारने ही वाला था तो किसी सन्यासी ने उसे ऐसा करने के लिए रोक दिया| किवदंतियों के अनुसार आल्हा आज भी जिंदा है और वह मध्य प्रदेश के वनो में स्थिति किसी शिव लिंग की पुजा करने आज भी आता है| इस तरह इस युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की जीत हुई। तराइन के प्रथम युद्ध के बाद तो उसके सामने टिकने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी| यही कारण रहा होगा कि धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व में दोष आ गया और वह वीरता व जीत के नशे में झूम रहा था जब उसका सबसे प्रबल शत्रु हार कर सही से वापस लौटा भी नहीं था| कुछ उसी के सेना के विश्वासघातियों के द्वारा व मोहम्मद गोरी की कूटनीतिज्ञ चालों की वजह से तराइन के दूसरे युद्ध में हार का सामना करना पड़ा| भारत में तराइन के दूसरे युद्ध के साथ ही गुलामी की शुरुआत हो गई| अपने शत्रु को बार-बार पराजित करने के बाद भी उसे हर बार छोड़ देना उसके जीवन की सबसे भूल साबित हुई| पृथ्वी राज चौहान की इसी वीरता के किस्से सुनकर जाने कितनी राजकुमारियों के दिल धड़कते होंगे| इसी कारण पृथ्वीराज चौहान की बहुत सी रानियाँ का जिक्र सुना जाता है| तराइन के युद्ध में जब वह शत्रु सेना द्वारा पराजित हुआ और उसके शत्रु द्वारा कैद किए जाने का समाचार उसकी रानियों को पता लगा तो युद्ध में बची हुई सेना के साथ राजा पृथ्वीराज चौहान को बचाने को प्रयास करने वाली एक ही रानी थी अच्छन कुमारी| कहा जाता है एक बार तो विजय प्राप्त करने की कगार पर पहुँच ही गई थे शत्रु सैनिकों ने उस पर धोखे से वार किया और वह अपनी जीती बाजी हार गई|
अच्छन कुमारी चंद्रावती के राजा जयतसी परमार की पुत्री थी। कहा जाता है ऐसा कोई गुण नहीं था, जो अच्छन में नहीं था। वह बडी सुंदर, चतुर, धर्मात्मा और सुशील स्त्री थी। अभी जब वह छोटी ही थी, एक दिन हँसी-हँसी में उनके पिता ने पूछा बेटी तू किससे अपना विवाह करना चाहती है?। अच्छन ने कहा– मैं तो अजमेर के राजकुमार पृथ्वीराज से विवाह करूंगी। पृथ्वीराज चौहान अजमेर के राजा सोमेश्वर सिहं चौहान का पुत्र था। वह अपनी वीरता के लिए विख्यात था। जयतसी ने मुस्करा कर कहा अच्छा परंतु यदि उसने अस्वीकार कर दिया तो क्या होगा। अच्छन कुमारी बोली क्या कोई राजकुमार भी किसी राजपुत्री की बात टाल देगा। यदि विवाह नहीं हुआ तो मैं जीवनभर कुवांरी ही रहूंगी। जयतसी ने तुरंत ही एक भाट के हाथ पृथ्वीराज के पास एक नारियल भेजा। उस समय छोटी अवस्था में होने के कारण विवाह नहीं हुआ।
उस समय गुजरात में राजा भोला भीमदेव जो अपनी वीरता, शूरता और धन के लिए जगत विख्यात था, का शासन था। जब उसने सुना कि अच्छन कुमारी बडी सुंदर है तो उसने अपने दूत को उनका हाल जानने के लिए भेजा। थोडे दिनों बाद लौटकर आए दूत से भोला भीमदेव ने पूछा– कहो क्या देखा? दूत ने कहा महाराज, बस कुछ पूछिए नहीं। जिसे देखने के लिए आपने हमें भेजा था, वह तो ऐसी सुंदर है कि उसके सामने चंद्रमा भी लज्जाता है। उसकी आंखों को देखकर कमल अपनी पंखुड़ियां समेट लेता है। ऐसी सुंदर कन्या संसार में उनके अतिरिक्त दूसरी कोई न होगी। वह तो इस योग्य है कि आपकी पटरानी बने। यह सुनकर भीमदेव बड़ा प्रसन्न हुआ और अपने मंत्री अमरसिंह को जयतसी के पास विवाह का संदेश लेकर भेजा। जयतसी ने बडे आदरपूर्वक उसका अतिथि सत्कार किया और कुशलक्षेम पूछने के पश्चात असल बात आरंभ हुई। अमरसिंह ने कहा महाराज, गुजरात नरेश चाहते है कि आपकी कन्या अच्छन कुमारी उनकी पटरानी बने। अच्छन कुमारी के पिता ने कहा कि भीमदेव से संबंध करने में मेरे कुल का मान होता, परंतु अब मैं क्या कर सकता हूँ मेरी पुत्री ने पहले ही पृथ्वी राज को अपना वर चुन लिया है| अब तो जो कुछ होना था, हो गया, अमरसिंह ने कहा इसे मना करने का परिणाम यह होगा कि सहस्रों प्राणियों का वध हो, रूधिर की नदियां बहे, आपकी चंद्रावती भी नष्ट की जाए और व्यर्थ की लड़ाई हो। राजा बोला मैं तुम्हें इसका उत्तर क्या दू? तुम भीमदेव से कह दो कि जब कन्या की मंगनी हो चुकी है तो फिर दूसरी जगह मंगनी कैसे हो सकती है। अब बात तो बदली नही जा सकती। यदि ना समझी के कारण कोई वैर भाव करे तो फिर मैं भी तो राजपूत हूँ और तलवार चलाना तो मैं भी जानता हूँ। मैं अपनी रक्षा कर लूंगा, परंतु मैं यह कभी भी नहीं चाहूंगा कि किसी के साथ भी किसी भी प्रकार का अन्याय हो, चाहे कुछ भी क्यों न हो। भीमदेव के संदेश का उत्तर यह है कि परमार की कन्या की मंगनी एक जगह हो चुकी है, अब हम किसी भांति इस बात को नहीं टाल सकते।
अमरसिंह, राजा जयतसी की बात सुनकर वापस अपनी राजधानी को लौट आया। जब भीमदेव ने सुना कि उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई, तो उसने उसी समय से युद्ध की सामग्री इकट्ठी करनी आरंभ कर दी| चंद्रावती उस समय की छोटी सी रियासत थी। जयतसी के पास इतनी सेना कहा जो भीमदेव से युद्ध करे उसने सोमेश्वर सिंह को सहायता के लिए बुला भेजा। जिस समय भीमदेव ने चंद्रावती पर आक्रमण किया, उसी समय सोमेश्वर को खबर मिली कि बादशाह शहाबुद्दीन एक बडी सेना लेकर भारत पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है व खैबर के दर्रे से आगे बढ़ आया है। अब एक ओर तो भारतवर्ष की रक्षा का, दूसरी ओर पुत्रवधू के मान की रक्षा का विचार था। इन दोनों विचारों ने सोमेश्वर को बडे संशय में डाल दिया। अंत में बहुत विचार करने के पश्चात उन्होंने यह निश्चय किया कि कुल का मान रखना अत्यावश्यक है, परंतु शहाबुद्दीन के आक्रमण की ओर से भी वह बेसुध नहीं था। वे स्वयं तो सेना लेकर जयतसी की सहायता को गए और अजमेर में हर प्रकार की युद्ध सामग्री इकट्ठी करने की आज्ञा दे दी। पृथ्वीराज उस समय दिल्ली का मुख्य अधिकारी था उसे चंद्रावती में अपने पिता के जाने की खबर मिली। वह बैठा हुआ अपने मित्रों के साथ विचार कर रहा था कि क्या करना चाहिए कि इतने में एक मारवाड़ी ब्राह्मण आया उसने राजकुमार को एक पत्र दिया। पृथ्वीराज ने पत्र पढ़कर सबसे कहा महाराज सोमेश्वर जयतसी परमार की सहायता के लिए चंद्रावती गए है। इधर शहाबुद्दीन गौरी भी आक्रमण की नीयत से आ रहा है। पिताजी की आज्ञा है कि मैं अजमेर की रक्षा करूं, परंतु इधर दूसरी ओर परमार राजकुमारी मुझे अपनी अपनी रक्षा के लिए बुलाती है। वह मेरी स्त्री है और इस सब लड़ाई का कारण भी वहीं है। पत्र को सुनकर सब चित्र की तरह बिल्कुल सुन्न हो गए। पृथ्वीराज ने कहा वीरों अब सोच विचार का समय नहीं है, स्त्री की सहायता को न जाना अति कायरता का काम होगा। मैं चंद्र और रामराव को लेकर अचलगढ़ जाता हूँ, तुम जाकर अजमेर की रक्षा करो। हमारे पास सेना बहुत है, म्लेच्छों से भली प्रकार युद्ध कर सकेंगे। बाकी कुछ सेना दिल्ली में ही रहने दो, ताकि वह पांचाल की हद पर मुकाबला कर सके। जब तक तुम अजमेर पहुंचोगे, यदि ईश्वर ने चाहा तो मैं भी अच्छन को लेकर आ जाऊंगा।
सांयकाल का समय था। सूर्यदेव अपनी पीली लाल किरणों से तमाम आकाश को सुशोभित कर रहे थे। पक्षी गण झुंड ईश्वर की प्रार्थना के गीत गाते हुए बसेरा करने वापस जा रहे थे। बस यह एक ऐसा समय था, जिसमें उदास से उदास प्राणी को भी एक बार तो अवश्य चेतना आ जाए। ऐसे ही समय राजकुमारी का मन बडी देर तक इधर उधर इन रमणीय स्थानों में भ्रमण करता रहा, कि इतने में सूर्यदेव ने अपना मुख ओट में कर लिया और चंद्रदेव ने आकर उस स्थल को और भी रमणीय कर दिया। मैं दान, पहाड, झरने आदि सब साफ साफ बडे सुदर लगते थे कि इतने में आबू के अग्निकुंड की ओर से तीन सवार किले की ओर आते दिखाई दिए। वे सिधे किले के फाटक पर पहुंचे। उन्हें देखकर सब अति प्रसन्न हुए, क्योंकि ये वही लोग थे, जिन्हें बुलाने के लिए आदमी भेजा गया था। सवार घोडों से उतरे और दास दासियों ने चारों ओर से आकर उन्हें घेर लिया। अच्छन कुमारी का यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने अपने प्राणाधार पति के दर्शन किए। पृथ्वीराज ने पूछा तुम्हारी बाई कहा है? दासियों ने कहा वे ऊपर बैठी है, आप चले जाइए। जब राजकुमारी ने देखा कि राजकुमार ऊपर ही आ रहे है तो वह स्वयं नीचे उतरी और दासियों को आज्ञा दी कि राजकुमार के स्नान के लिए जल लाएं। तुरंत ही जल आदि आ गया। राजकुमार और दोनों मित्रों ने स्नान करके भोजन किया। अब दासियां पृथ्वीराज को अच्छन के पास ले आई। वह लाज के मारे चुप होकर बैठ गई और सहेलियों के कहने पर भी वैसे ही बैठी रही। अंत में सहेलियों ने कहा महाराज, हम जाती है, आप बाईजी से बातचीत करें। उनके चले जाने पर पृथ्वीराज ने कहा जिस समय आपका पत्र पहुंचा, उसी समय मैं वहाँ से चल दिया। अब तो अच्छन कुमारी को उत्तर देना आवश्यक हो गया। उन्होंने मुस्कराकर कहा आपने बडी दया की, आपको राह में बड़ा कष्ट हुआ होगा। इसका कारण आपकी यह दासी है। राजकुमार बोला तुम्हें देखकर मेरी सब थकावट जाती रही। इसके बाद और बहुत सी बाते होती रही। जिस समय पृथ्वीराज अचलगढ़ में था, उसी समय चंद्रावती पर आक्रमण किया। भीम देव बहुत ही शक्तिशाली व ताकतवर राजा था, उसने कुछ ही समय में चंद्रावती की सेना को छिन्न भिन्न कर दिया| पृथ्वीराज चौहान और उनके पिता की वीरता के सामने वह जीत नहीं सका और उसे खाली हाथ लौटना पड़ा| इस युद्ध में सोमेश्वर सिंह चौहान चंद्रावती में भीमदेव के हाथों मारा गया था। सवेरा होते ही अच्छन कुमारी अपनी दो सखियों सहित घोडों पर सवार हुई। तीनों क्षत्रिय भी अपने घोड़ो पर चढ़े और फिर ये सब के सब अजमेर की ओर चल दिए और वहाँ पहुंचकर अच्छन को सहेलियों सहित महल में भेज दिया गया। अब पृथ्वीराज ने अपनी सेना को ठीक करना आरंभ किया और फिर शहाबुद्दीन से लड़ाई का डंका बजा। तारावडी के मैंदान में खूब लोहा बजा, जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और शहाबुद्दीन को पराजित होना पडा। इस युद्ध के उपरांत पृथ्वीराज चौहान ने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की कि ऐसे बलवान शत्रु पर अधिकार पाकर उसे जिंदा छोड दिया। पिता की मृत्यु के उपरांत पृथ्वीराज का राजतिलक कर दिया गया और राजपुरोहित ने उसके साथ अच्छन का विवाह भी करा दिया। अच्छन कुमारी राजकाज को भली भांति समझती थी। पृथ्वीराज सदा उनकी सम्मति लेकर काम करता था। अच्छन कुमारी में एक यह बड़ा अच्छा गुण था कि राजा की ऊँच-नीच से परिचित रहती थी। भला कोई ऐसा काम हो तो जाए, जिसकी उसे खबर न मिले।
कुछ दिनों बाद राजा पृथ्वीराज ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। उस समय पूरे भारतखंड में राजा पृथ्वीराज से ज्यादा वीर राजा कोई नहीं था। शहाबुद्दीन हिंदुस्तान को जीतना चाहता था, परंतु अवसर न पाता था। वह कई बार पराजित हुआ, परंतु धैर्य के साथ अवसर का इंतजार करता रहा। पृथ्वीराज भी अपने बल के मद में चूर था, उधर कन्नौज नरेश जयचंद संयोगिता के स्वयंवर में पराजित होने के उनका शत्रु बन गया। स्वंयवर की लड़ाई में चुनिंदा सरदार मारे गए, केवल दो चार शेष रहे थे। सन् 1191 में शहाबुद्दीन फिर चढ़ आया, इस लड़ाई में उसे फिर पराजित होना पड़ा| राजपूतों ने समझा कि अब वह मुकाबले को ना आएगा, उनकी कुछ सेना तो दिल्ली चली आई और कुछ वीर जय मनाते रहे। एक सरदार विजयसिंह का शहाबुद्दीन से मेल था जब सब लोग खुशी मना रहे थे, वह अपने राजपूतों को लेकर यवनों से जा मिला। विजय सिंह तथा जयचंद ने अपनी सेना देते हुए शहाबुद्दीन को फिर मुकाबले के लिए तैयार किया। गौरी इस बार दुगने उत्साह से पृथ्वीराज पर आक्रमण किया| युद्ध में वीरता से पृथ्वीराज ने शत्रु की हालत खराब कर दी थी लेकिन विजयसिंह की मक्कारी से पृथ्वीराज जख्मी होकर गिर कर बेहोश हो गया और गौरी की सेना द्वारा पकड़ लिया गया|
पृथ्वीराज जब रणक्षेत्र को जीतने के लिए गए तो उनकी पुत्री ऊषावती का स्वास्थ्य बिगडा रानी पूरी रात उसकी पलंग से लग कर बैठी रही। महल के बाहर बड़ा कोलाहल सुना तो बडी चकित हुई। इतने में दो क्षत्रिय हांफते हुए आएं और कहने लगे भागों-भागों अपना धर्म बचाओं, यवनों की जय हुई, वे राजभवन को लूटने आ रहे है। रानी बोली महाराज कहाँ है? सैनिकों ने कहा कि महाराज को रणभूमि में हमने बेहोश पड़े देखा था। यह खबर सुनकर ऊषावती घबरा गई और पूछने लगी समर कल्याणादि कहाँ है? सिपाहियों ने कहा वे सब मारे गए। यह सुनना था कि वह चिल्ला उठी नाथ आप अग्नि में आहूति हो गए। यह कहकर वह बेसुध हो गई और फिर न ऊठी। सिपाही कहने लगे रानी जी, जल्दी नगर को चलिए, शत्रु लोग चले आ रहे है। कहीं ऐसा न हो, वे हमारा धर्म भी नष्ट कर दे। यह सुनकर रानी को होश आया। उन्होंने सुंदर वस्त्र भूषण उतार दिए, सर की जटाएँ खोल ली, और जैसे कोई बावली बातें करती है| वह अपना होश खो बैठी, कहने लगी कि मुझे अब क्या चिंता है, किसका डर है, जिसका था वो तो गया। सब धन लक्ष्मी लुट गई। अब मैं भागकर अपने को क्यों बचाऊं, चलो| जल्दी चिता बनाओं। यवन, म्लेच्छा मेरा क्या करेंगे। जिसे अपनी जान अपनी जान प्यारी हो, वह भाग जाए, मैं तो नहीं भागूंगी, दिल्लीपति मर गया। चांडाल शहाबुद्दीन ने मार डाला, महाराज ने उसे छोड दिया था। उस दुष्ट को तनिक भी दया ना आई, अब चलो जल्दी करो। राजा का शरीर अभी ठंडा नहीं हुआ होगा। चिता बनाओ, मैं भी राजा के साथ स्वर्ग जाऊंगी। ये बातें सुनकर लोगों ने चिता बना दी और ऊषावती का मृतक शरीर उस पर रख दिया।
रानी भी चंदन लगा, गले में श्वेत पुष्पों का हार डाल, चिता की परिक्रमा कर बिल्कुल तैयार हो रही थी कि एक व्यक्ति घोड़ा दौड़ाता हुआ उधर आया। यह पृथ्वीराज का सेनापति था। वह तुरंत ही रानी के पांव से लिपट गया। अच्छन बोली बलदेव क्या कहते हो? सैनिक बोला हाँ महारानी मैं महाराज का ही संदेशा लाया हूँ, रानी हैरान होते हुए बोली हमने तो सुना था कि महाराज रणभूमि में मारे गए, आखिर तुम किन महाराज का संदेशा लाये हो| सैनिक ने नहीं महारानी महाराज अभी तक जीवित है लेकिन वे मोहम्मद गोरी की कैद में है| हमारे ही एक विश्वासघाती की वजह से वें आज कैद में है | रणभूमि में युद्ध करते विजय सिंह से महाराज के साथ छल किया जिसकी वजह से महाराज मूर्छित होकर रणभूमि में गिर पड़े अधिकतर सैनिकों ने महाराज को गिरते हुए यही सोचा कि महाराज वीर गति को प्राप्त हो लेकिन यह पूरा सच नहीं है| बेहोशी की हालत में ही शत्रु सैनिकों ने महाराज को कैद कर लिया है| महारानी ने रोष में आते हुए कहा कि तुम यह संदेश सुनाने आए हो शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसे सच्चे क्षत्रिय हो तुम, तुम्हारी माता धन्य है कि राजा कैद में है और तुम उनके कैद होने का संदेश सुनाने आए हो और वो भी मुझे? महारानी ने अपनी सभी दासियों को संबोधित करते हुए कहा देखो, यह एक क्षत्रिय का पुत्र है, जिसे महाराज का दाहिना हाथ कहा जाता है जो राजा का को शत्रु दल में छोड़ कर अपने क्षत्रिय धर्म से मुंह मोडकर मुझे संदेश सुनाने आया है। कहाँ गई इसकी राजभक्ति, देशभक्ति, धर्मभक्ति या क्षत्रिय धर्म से नष्ट होते ही वह सब भी नष्ट हो गई। अब यह तो केवल एक संदेश सुनाने वाले बन रह गए है, धन्य है ये और धन्य है इस वीर क्षत्रिय तेरी जुबान। धन्य है तेरा घोड़ा और धन्य है तेरी तलवार। आपने क्या सोचा यह सुनकर मैं और तेरी स्त्रियाँ प्रसन्न होगी? क्या यह सुनकर तेरी वीर माता के हृदय को आघात नहीं होगा, लज्जा नहीं आई महाराज को रणक्षेत्र में असहाय छोड़ते हुए उनका संदेश सुनाने के लिए आने के लिए तुम्हें| जाओं दूर हट जाओं, दूर हो जाओं मेरे सामने से, मुझे अपना मुंह मत दिखाओं। मैं महाराज दिल्लीपति की सच्ची प्रजा हूँ, मैं आज राजपरायण होना चाहती हूँ। तुम सिंह से श्रृंगाल बन गए व रणभूमि से भाग आए और राजा की सती स्त्री को संदेश सुनाने आ गए| क्या तुमने किसी क्षत्राणी का दूध नहीं पिया जो तुम्हें अपने देश की स्वतंत्रता प्यारी ना रही। आज तुम्हीं जैसे लोग तो कुल, देश राज के कलंक होते है जा चला जा मेरे सामने से। मैं अब भी एक क्षत्रिय की पुत्री हूँ, चाहे सूर्य जरा सी देर में छिन्न-भिन्न होकर भूमि पर गिर पडे, परंतु मैं अपने धर्म से नहीं गिरूँगी।
मैं राज राजेश्वरी हूँ, जा भाग जा यहाँ से फिर रोष में आते हुए महारानी ने लोगों से कहा छीन लो इसकी तलवार। तलवार हाथ में आते ही वह एक छलांग मारकर बलदेव के घोड़े पर जा बैठी, उस समय क्रोध में धड़कती अग्नि सी प्रतीत हो रही थी जिसका वर्णन करना भी मुश्किल है उसकी शोभा देखने योग्य थी। हाथ में नंगी तलवार, केश खुले हुए, माथे पर चंदन लगा हुआ और निडर होकर घोड़े पर बैठी हुई। महारानी ने युद्ध की हुंकार भरते हुए अपने सैनिकों सहित सेवकों से कहा प्रजा का धर्म है, राजा की रक्षा करें। आज मैं अकेली ही शत्रुओं से लड़कर महाराज को छुड़ा कर लाऊंगी। मेरा शरीर राजा का है और राजा के काम मैं ही कटकर गिरेगा। महारानी की उत्साह और जोश को देखकर बचे हुए राजपूत सैनिकों में जोश आ गया सभी महारानी के सुर में सुर मिलाते हुए बोले कि माता जब तक जान में जान है हम तब तक लडेंगे, मरेगें, कटेंगे और काटेंगे। महारानी युद्ध की हुंकार भरते हुए शत्रु सेना पर टूट पड़ी वीर राजपूत सैनिकों की सेना के एक टुकड़ी अभी भी महारानी के थी| मोहम्मद गोरी के सैनिक कुतुबूद्दीन ऐबक के नेतृत्व में राजभवन लूटने के लिए आ रहे थे। महारानी पर ने युद्ध में जाते ही प्रलय मचा दी उसने शत्रु सेना के सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटने शुरू कर दिये। शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी की सेना की टुकड़ी रानी के इस रूप को देख डर कर भागने लगी किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि युद्ध में अचानक एक नारी रणचंडी का रूप बनाकर कहाँ से आ गई| महारानी इतने भयानक तरीके से काट रही थी कि शत्रु सेना थर्रा उठी। शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी की सेना ने रानी को चारों ओर से घेर लिया और उन पर बाणों की वर्षा कर दी महारानी बहुत देर कर बाणों को काटते हुए बचती रही तभी एक बाण उनकी गर्दन में लगा, घायल होने पर भी रानी लड़ती रही लगातार हो रही बाणों की वर्षा से रानी का शरीर छलनी हो गया और मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई| शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने बहुत कोशिश कि इस बहादुर रानी का मृत शरीर उसके सैनिकों को प्राप्त हो जाये परंतु रानी के वीर सैनिकों ने उनका शरीर पहले से ही सती के लिए सजी चिता पर पहुंचाकर उसमे अग्नि प्रज्वलित कर दी| बचे सैनिकों ने भी वीरता से लड़ते-लड़ते हुए अपनी मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। वीर सैनिकों के स्त्रियाँ भी रानी अच्छन कुमारी की चिता की परिक्रमा करके अपने अपने पतियों की चिता में बैठ गई और सती हो गई। शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने राजा पृथ्वीराज चौहान को कैद कर लिया| इसके बाद तो भारत माता के पैरों में एक लंबे समय के लिए गुलामी की बेड़ियाँ बंध गई| अगर देखा जाये तो कहीं ना कहीं इसका दोष राजा पृथ्वी राज चौहान को ही जाता है क्योंकि अगर वह मोहम्मद गोरी को सत्रह बार जिंदा नहीं छोड़ता तो शायद भारत माता कभी गुलाम नहीं होती लेकिन पृथ्वीराज चौहान के शक्ति के गुरूर ने गुलामी के शत्रु द्वारा किए गए प्रयास को साकार रूप दे दिया| को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। कुछ दिनों बाद मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मार दिया और पूरे भारत पर अपनी जीत का परचम फहरा दिया| राजा पृथ्वीराज चौहान की इस रानी ने अपने पति को बचाने की रक्षा की कोशिश में वीरगति को पाते ही भारत के इतिहास में वीर महिलाओं की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा दिया| आज भी लोग उनके सम्मान गीत गाते और उनकी वीरता का गुणगान करते है|
मौलिक व अप्रकाशित
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लक्ष्मण मेरा उत्साह वर्धन करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आ. भाई फूलसिंह जी, महत्वपू्ण ऐतिहासिक जानकारी की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
आपका बहुत धन्यवाद सर जी
बड़ी लम्बी ऐतिहासिक घटना लिखी है आपने। बहुत कुछ शोध का विषय है। अच्छा लगा इतिहास पढ़कर। बधाई स्वीकार कीजिये
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