सुनो सखी इस सावन में तो झूलों पर भी रोक लगी
जिससे लगता नेह भरी सब साँसों पर भी रोक लगी।१।
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घिरघिर बदली कड़क दामिनी मन को हैं उकसाती पर
भरी उमंगों से यौवन की पींगों पर भी रोक लगी।२।
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कितने मास करोना का भय देगा कारावास हमें
मिलकर हम सब कैसे गायें गीतों पर भी रोक लगी।३।
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सूखी तीज बितायी सब ने कैसी होगी राखी रब
कोई कहे न अब फिर आकर धागों पर भी रोक लगी।४।
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चूड़ी बोले खनक खो गयी पायल बोले छमछम गुम
पाँवो की थिरकन के साथी हाथों पर भी रोक लगी।५।
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माहुर घुला सजन के मन में वेणी गजरे सूख गये
सब कहते हैं आज सुवासित गन्धों पर भी रोक लगी।६।
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सुख दुख अपने साझा करते साँझ सवेरे बैठ जहाँ
पनघट छूटे, झील नदी के तीरों पर भी रोक लगी।७।
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प्रेमपथों पर मौन मिलन के होते थे अनुबंध बहुत
अब के सावन अनुबन्धों के पाँवों पर भी रोक लगी।८।
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मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. मधु महक जी, सादर अभि्आदन । गजल पर उपस्थिति और मान देने के लिए आभार ।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
जनाब लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी आदाब, सम-सामयिक परिस्थितियों पर हिन्दी ज़बान में शानदार ग़ज़ल हुई है, भरपूर दाद के साथ बधाई स्वीकार करें। सादर।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आभार ।
आ. डिम्पल शर्मा जी, सादर अभिवादन । आपको गजल अच्छी लगी, यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । गजल तक आने के लिए हार्दिक आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।
सुख दुख अपने साझा करते साँझ सवेरे बैठ जहाँ
पनघट छूटे, झील नदी के तीरों पर भी रोक लगी।७।
आदरणीय लक्ष्मण धामी'मुसाफिर'जी नमस्ते,आज के ताज़ा हालात पर लिखी आपकी यह ग़ज़ल बहुत ख़ूब हुई है, बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
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