बह्रे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
मुहलत जो ग़म से पाई थी वो भी नहीं रही
इक आस जगमगाई थी वो भी नहीं रही [1]
देकर लहू जिगर का मसर्रत जो मुट्ठी भर
हिस्से में मेरे आई थी वो भी नहीं रही [2]
शाहाना तौर हम कभी अपना नहीं सके
आदत में जो गदाई थी वो भी नहीं रही [3]
दुनिया घिरी है चारों तरफ़ से बुराई में
बंदों में जो भलाई थी वो भी नहीं रही [4]
याद-ए-सनम की हमने दिल-ए-ना-मुराद में
इक शम्अ' जो जलाई थी वो भी नहीं रही [5]
माज़ी के गुलसितान से ख़ुशबू-ए-रफ़्तगाँ
बाद-ए-सबा जो लाई थी वो भी नहीं रही [6]
दादा कभी के जा चुके और घर के सह्न में
उनकी जो चारपाई थी वो भी नहीं रही [7]
पुरसान-ए-हाल कौन है मेरा जहान में
मेरी जो एक माई थी वो भी नहीं रही [8]
चहरों की भीड़ में कहीं 'शाहिद' मैं खो गया
ख़ुद से जो अश्नाई थी वो भी नहीं रही [9]
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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कठिन शब्दों के अर्थ:
1. मसर्रत = ख़ुशी
2. शाहाना = राजसी
3. तौर = ढंग, चाल-ढाल
4. गदाई = फ़क़ीरानापन, भिक्षा-वृती
5. दिल-ए-ना-मुराद = वो दिल जिसकी इच्छा-पूर्ती ना हुई हो
6. रफ़्तगाँ = वो लोग जो जा चुके हैं
7. सह्न = आँगन
8. पुरसान-ए-हाल = हाल पूछने वाला, हितचिंतक
9. अश्नाई = जान-पहचान
Comment
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहिब
सादर अभिवादन
बेहतरीन अश'आर से सजी एक उम्दा ग़ज़ल हम तक पहुँचाने के आप निस्संदेह बधाई के पात्र हैं.स्वीकार करें बंधुवर.
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।
//ख़ुद से जो अश्नाई थी वो भी नहीं रही [9] "अश्नाई" ये लफ़्ज़ "आशनाई" है, शायद टंकण त्रुटि हो गयी है, देखियेगा। सादर।
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