2122 1122 1122 22(112)
जाने क्यूँ आज है औरत की ये औरत दुश्मन,
पास दौलत है तो उसकी है ये दौलत दुश्मन ।
दोस्त इस दौर के दुश्मन से भी बदतर क्यूँ हैं,
देख होती है मुहब्बत की हकीकत दुश्मन ।
माँग लो जितनी ख़ुदा से भी ये ख़ुशियाँ लेकिन,
हँसते-हँसते भी हो जाती है ये जन्नत दुश्मन ।
मैं बदल सकता था हाथों की लकीरों को मगर,
यूँ न होती वो अगर मेरी मसर्रत दुश्मन ।
ऐसे इंसानों की बस्ती से रहो दूर जहॉं,
'हर्ष' हो जाए मुहब्बत की मुहब्बत दुश्मन ।
"स्वरचित व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी आपकी स्नेहिल होंसिला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
सादर ।
आ. भाई हर्ष महाजन जी, सादर अभिवादन । सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय जनाब अमीरुद्दीन जी मेरी पेशकरदा रचना पर आपकी आमद और तनक़ीद का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ । आपके दिए गए सुझाव सच में बहुत ही बेहतरीन हैं जो कृति की शौभा बढ़ाती है । आपने कृति पर अपना कीमती समय दिया इसके लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
सादर ।
आदरणीय हर्ष महाजन जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।
"यूँ न होती जो अगर मेरी मसर्रत दुश्मन" जनाब इस मिसरे में अगर के साथ जो शब्द खटक रहा है, जो के बदले वो कर के देख सकते हैं।
"ऐसे इंसानों की बस्ती से रहो दूर अगर,
इल्म हो जाए मुहब्बत की हकीकत दुश्मन" अच्छा शे'र है लेकिन आप इस शे'र को ग़ज़ल का मक़्ता भी बना सकते हैं :
"ऐसे इंसानों की बस्ती से रहो दूर जहाँ,
'हर्ष' हो जाए मुहब्बत की मुहब्बत दुश्मन" सादर।
आदरणीय आशीष यादव जी मुहब्बतों के लिए तहे दिल से शुक्रिया ।
सादर ।
आदरणीय साध्वी सैनी जी रचना पर आपकी आमद और उस पर आपके स्नेहिल शब्दों के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय श्री हरष् महाजन जी अच्छी गजल पर मुबारकबाद कुबूल फरमायें।
आदरणीय सर समर कबीर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति केके लिए कोटि कोटि धन्यवाद । सृजन के भावों को इतना मान देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
सादर ।
जनाब हर्ष महाजन जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय डिंपल जी मेरी रचना पर आपकी आमद और उस पर आपकी प्रतिक्रिया का बहुत बहुत शुक्रिया ।
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