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ज़िंदगी रास्ता देखती हो मेरा
सामना मौत से भी तभी हो मेरा (1)
मैं चलूँ अपने बच्चों की उंँगली पकड़
फिर भले ये सफ़र आख़िरी हो मेरा (2)
वाक़िआ होगा पहला यक़ीं मानिए
सामना मौत से जब कभी हो मेरा (3)
अब ये मुमकिन नहीं आज के दौर में
शह्र में भी रहूँ गांँव भी हो मेरा (4)
ख़ाक ऐसे करें नफ़रतों का जहाँ
आग तेरी रहे और घी हो मेरा (5)
ज़िंदगी को भी आना पड़े सामने
मौत जब भी पता पूछती हो मेरा (6)
आज तक शख़्स जो हुक़्म देता रहा
एक दिन के लिए अर्दली हो मेरा (7)
*मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई ब्रजेश कुमार 'ब्रज ' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये आपको तह -ए - दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये आपको तह -ए - दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
आदरणीय भाई निलेश जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये आपको तह -ए - दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। आपकी इस्लाह के लिए मश्कूर ओ ममनून हूँ ।
खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय...
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आ. सालिक जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है.. विस्तार से समर सर कह ही चुके हैं..
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मैं चलूँ अपने बच्चों की उंँगली पकड़
और फिर वो सफ़र आख़िरी हो मेरा... चूँकि वैसा लम्हा आया नहीं है इसलिए ये की जगह वो आएगा (दूरस्थ भाव)
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अब ये मुमकिन नहीं आज के दौर में.. अब आने के बाद आज के दौर में कहना दुहराव है ..
आज के दौर में ऐसा मुमकिन नहीं
आज के दौर में ये तो मुमकिन नहीं
आज के दौर में यूँ तो मुमकिन नहीं .. ऐसा कुछ ज़ुबान के साथ न्याय होगा ..
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शख़्स जो हुक़्म देता रहा आज तक ... अब रदीफ़ का दोष हट गया.. बिना शब्द बदले..
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ऐसे ही बारीक बिन्दुओं पर चिन्तन करते रहिये, रचते रहिये..
सादर
आदरणीय समर कबीर साहिब
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये आपको तह -ए - दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। आपकी इस्लाह पर फौरन तामील कर रहा हूँ जनाब।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'मैं चलूँ काश बच्चों की उंँगली पकड़
ये सफ़र ही सही आख़िरी हो मेरा'
उचित लगे तो शैर यूँ कर लें:-
'मैं चलूँ अपने बच्चों की उँगली पकड़
फिर भले ये सफ़र आख़िरी हो मेरा'
'वाक़िया होगा पहला यक़ीं मानिए'
इस मिसरे में 'वाक़िया' को "वाक़िआ" कर लें ।
'खाक कर दें चलो नफ़रतों का जहाँ
आग होगी तेरी और घी हो मेरा'
इस शैर को यूँ कहें:-
'ख़ाक ऐसे करें नफ़रतों का जहाँ
आग तेरी रहे और घी हो मेरा'
'ज़िंदगी को भी आना पड़ा सामने'
इस मिसरे में 'पड़ा' को "पड़े" कर लें ।
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