२२१/२१२१/१२२१/२१२
कहते हैं झूठ ज़ुल्म हिरासत में आ गया
हाँ न्याय ज़ालिमों की हिमायत में आ गया।१।
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लूटा गया था रात में अस्मत को जिसकी ढब
उसका ही नाम दिन को सिकायत में आ गया।२।
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अन्धा है न्याय जानता होगी सजा नहीं
बेखौफ जुल्मी यूँँ न अदालत में आ गया।३।
*
बचना था जेल जाने से ऊँँची पहुँँच के बल
शासन की छाँँव पा वो सियासत में आ गया।४।
*
चुप क्यों हो नदिया झील समन्दर भला कहो
दलदल भी जिसको आज हरारत में आ गया।५।
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हाकिम हुआ मगर न हुई जन की पीर निज
नीरो सा फिर ये कौन रियासत में आ गया।६।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
भाई लक्ष्मण धामी जी
सादर अभिवादन
एक और बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकारें.
आ. भाई ब्रिजेश जी सादर आभार....
इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा
"चुप क्यों हो नदिया झील समन्दर उसी पे तुम
दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"
बहुत बढ़िया आदरणीय धामी जी...
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल आपकी उपस्थिति व स्नेह के बाद ही मुकम्मल हो पाती है । सादर आभार ..
इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा
"चुप क्यों हो नदिया झील समन्दर पे तुम
दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल आपकी उपस्थिति व स्नेह के बाद ही मुकम्मल हो पाती है । सादर आभार ..
इंगित मिसरे को इस प्रकार देखियेगा
"दलदल जो बात सुन के हरारत में आ गया"
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'दलदल भी जिसको आज हरारत में आ गया'
ये मिसरा वाक्य की दृष्टि से अधूरा लग रहा है, देखियेगा ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। लाज़वाब गज़ल।
हाकिम हुआ मगर न हुई जन की पीर निज
नीरो सा फिर ये कौन रियासत में आ गया।६
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