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क़ैद नज़रों में ही रखा है मुझे
उसने आज़ाद कब किया है मुझे (1)
इससे बहतर तो था अदू मेरा
यार दीमक सा खा रहा है मुझे (2)
रात की नींद उड़ गई मेरी
ख़्वाब में जब से वो दिखा है मुझे (3)
सुब्ह तक होश में नहीं आया
रात इतनी पिला चुका है मुझे (4)
मंज़िलों तक पँहुच नहीं पाया
पर वो रस्ता बता गया है मुझे (5)
वो शिकायत कभी नहीं करता
उससे इतना ही अब गिला है मुझे (6)
मैं तो पहचानता नहीं उसको
यार लेकिन वो जानता है मुझे (7)
मश्क़ मरने की क्यों करूँ "सालिक"
अब तो जीना भी आ गया है मुझे (8)
* मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बढ़िया ग़ज़ल हुई आदरणीय सालिक जी...
उस्ताद -ए - मुहतरम समर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और सराहना के लिए ह्रदय से आभार। आपकी क़ीमती इस्लाह के लिए ममनून हूँ। देर से जवाब देने के लिए माज़रत चाहता हूँ.
मुहतरम अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और सराहना के लिए ह्रदय से आभार। आपने मतला सहीह सुझाया है आदरणीय मगर तनाफ़ूर है ,समर कबीर साहिब ने नया मतला लिख दिया है वही उपयुक्त लगा है. उम्मीद करता हूँ भविष्य में भी आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहेगा। देर से जवाब देने के लिए माज़रत चाहता हूँ.
भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी शिर्कत और सराहना के लिए ह्रदय से आभार
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब , ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
उसने आज़ाद कर दिया है मुझे
क़ैद कर के कहीं रखा है मुझे
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है, मतला दुसरा कहने का प्रयास करें I
कह रहा है कि जानता है मुझे
इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
`यार लेकिन वो जान्ता है मुझे`
मश्क़ मरने का चल करें "सालिक"
इस मिसरे में `मश्क़` शब्द स्त्रीलिंग है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
`मश्क़ मरने की क्यों करूँ `सालिक`
जनाब सालिक़ गणवीर जी आदाब बहुत अच्छी ग़ज़ल पेश की है आपने दाद ओ मुबारकबाद पेश करता हूँ मतले और मक्ते पर अर्ज़ करना चाहता हूँ कि
उसने आज़ाद कर दिया है मुझे. उसने आज़ाद तो किया है मुझे
क़ैद कर के कहीं रखा है मुझे (1). क़ैद नज़रों में कर रखा है मुझे
मश्क़ मरने का चल करें "सालिक". बात मरने की क्यों करें "सालिक"
अब तो जीना भी आ गया है मुझे (8)अब तो जीना भी आ गया है मुझे सादर।
* मौलिक/अप्रकाशित
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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