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यहाँ तो बहुत हैं अभी यार मेरे
मगर याँ अदू भी हैं दो-चार मेरे (1)
कभी भूलकर भी न उनको सज़ा दी
रहे उम्र-भर जो गुनहगार मेरे (2)
हिकारत से अब देखते हैं मुझे भी
यही लोग थे कल तलबगार मेरे (3)
मुझे टुकड़ों में बाट कर ही रहेंगे
हैं दुनिया में जो लोग हक़दार मेरे (4)
जो रिश्ते सभी तोड़ कर जा चुका है
उसी से जुड़े हैं अभी तार मेरे (5)
वही मिल गये हैं अभी दुश्मनों से
यही कल तलक थे तरफ़-दार मेरे (6)
मुझे मिल गई है वहीं यार मिट्टी
जहाँ दफ़्न हैं अब ज़मींदार मेरे (7)
वही बिक रहे हैं सर-ए-आम "सालिक"
यही लोग कल थे ख़रीदार मेरे (8)
* मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय भाई dandpani nahak जी
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आद0 भाई सालीक गनवीर जी सादर अभिवादन
बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
टाइटल भी एडिट कर दें ।
उस्ताद-ए -मुहतरम Samar kabeer साहिब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार। आपकी इस्लाह के लिए ममनून हूँ. आइंदा ग़लती नहीं होगी आदरणीय ,मुआफ़ कर दें।
मुहतरम अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल की उम्दा काविश है, मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'यहाँ पर बहुत हैं अभी यार मेरे'
इस मिसरे में 'यहाँ' शब्द के साथ 'पर' का प्रयोग उचित नहीं(पहले भी बता चुका हूँ)इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'यहाँ तो बहुत हैं अभी यार मेरे'
'यही अस्ल में भी हैं हक़दार मेरे'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'हैं दुनिया में जो लोग हक़दार मेरे'
'वही तोड़ कर जा चुका है सभी से'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'जो रिश्ते सभी तोड़ कर जा चुका है'
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । उत्तम गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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