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जग में नाम कमाना है
इक दिन तो मर जाना है. (1)
अपना दर्द छुपा कर रख
दिल में जो तहख़ाना है. (2)
ग़ैर समझता है मुझको
जिसको अपना माना है. (3)
मार नहीं सकती है भूख
गर क़िस्मत में दाना है. (4)
नई सुराही ले आए
पानी मगर पुराना है. (5)
चिड़िया उड़ जाए न कहीँ
इक पिंजरा बनवाना है. (6)
शक्ल ज़रा सी है बदली
पर जाना-पहचाना है. (7)
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय भाई ब्रजेश जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए शुक्रगुज़ार हूँ.
अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय सालिक जी...
प्रिय भाई गुरप्रीत सिंह जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल तक आने और सराहना के लिए बहुत शुक्रियः. मतला पहले यही लिखा था..
इक दिन तो मर जाना है... यकीन कीजिये अब यही रहेगा.
अपना दर्द छुपा कर रख..
दूसरे शैरका ऊला यूँ पढ़ा जाए.
नई सुराही आई है...
पाँचवे शैर का ऊला यूँ पढ़ा जाए.
इन ग़लतियों पर ध्यान आकर्षण के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ.
आदरणीय भाई लक्ष्मण जी
सादर प्रणाम
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए आभार व्यक्त करता हूँ.
आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्कार । आप बहुत अच्छी ग़ज़ल कहते है । लेकिन माफी चाहता हूं ये ग़ज़ल मुझे उतनी अच्छी नहीं लगी।
मतले के सानी में " बाद उसके " कुछ ठीक नहीं लग रहा।
फिर इक दिन मर जाना है ।
शायद ऐसा कुछ बेहतर रहेगा ।
रखता हूं मैं दर्द छुपा कर,
दिल में जो तहखाना है ।
यहां तहखाना क़ाफिया का बहुत सुंदर रूप में उपयोग किया है आपने । वाह वाह ।
लेकिन इस शेर के ऊला में एक मात्रा ज्यादा हो गई है ।
पांचवें शेर के ऊला में भविष्य की जब की सानी में वर्तमान की बात की जा रही है।
मैंने अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार जो समझ में आया लिखने की कोशिश की है सर जी । बाकी ये सही है या नही गुणिजन बताएंगे जी ।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
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