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चल आज मिल के दोनोंं क़सम ये उठाएँ हम
तुम हमको भूल जाओ तुम्हें भूल जाएँ हम (1)
इह तरह तो हमारा गला बैठ जाएगा
कब तक असम को अपनी कहानी सुनाएँ हम (2)
पीछा न अपना छोड़ेंगी यादों की बिल्लियाँ
चल यार इनको दूर कहीं छोड़ आएँ हम (3)
तेरे ख़िलाफ़ फिर से न आवाज़ उठ सके
लोगों के साथ अपना गला भी दबाएँ हम (4)
मुद्दत से आरज़ू है हमारी ऐ जान-ए-मन
इक शाम तेरे साथ कभी तो बिताएँ हम (5)
दुनिया में नाम होगा हमारा भी इस तरह
अंदर लगी हो आग तो बाहर बुझाएँ हम (6)
© सालिक गणवीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. सालिक जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ,,बधाई..
मतले में चल के कारण शुतुरगुर्बा हो रहा है..देखिएगा
सादर
आखिरी शे'र के ऊला में "होगा" के बजाय " होए" बेहतर होता, थी जी !
बिल्लियाँ ! और वो भी यादों की , भाव-साम्य मधुर है ही नहीं, "झपकियाँ "कर लीजिए, जनाब !
कब तक तुम्हे वो अपनी कहानी सुनाएं हम', दूसरा मिसरा कर लीजिए, रब्त भी रह जाएगी, साइकिल गणगौर साहब !
ऐ आदाब, ऐसे खड़े रहे तो गला बैठ जाएगा " अजीब मिसरा है, गले से नहीं उतरता ! तुम बोलते रहे तो गला बैठ जाएगा ' कर लीजिएगा !
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