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लिक्खा सजा के हम ने उजालों ने जो कहा
लाया मगर अमल में अँधेरों ने जो कहा।१।
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बैठक में ला के रख दी वो शोभा बढ़ाने को
समझा बताओ किसने किताबों ने जो कहा।२।
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देखा जो उसको मान के आँखों का धोखा है
जाना अमर है सत्य हवाओं ने जो कहा।३।
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सोचा ही था कि शाप के परिणाम आ गये
आया असर न एक दुआओं ने जो कहा।४।
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इस दौर कह के झूठ है अन्नों की बात को
सच कह रही है देह दवाओं ने जो कहा।५।
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किसने गिने विवाह में आशीष कितने हैं
भाया हिसाब सबको लिफाफों ने जो कहा।६।
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अपनों की बात माने मुसाफिर नहीं मगर
पत्थर की है लकीर परायों ने जो कहा।७।
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति ,स्नेह व भूरीभूरी प्रशंसा लिए हार्दिक धन्यवाद।
क्या बात क्या बात क्या बात
'अन्नों की बात लोक में ठहरा के झूठ अब'
ठीक है अब ।
आ. भाई समर जी सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और सुझाव के लिए हार्दिक आभार।
इंगित मिसरे को यूँ किया है । देखिएगा...
अन्नों की बात लोक में ठहरा के झूठ अब
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'लिक्खा सजा के हम ने उजालों ने जो कहा
लाया मगर अमल में अँधेरों ने जो कहा'
मतले में शुतर गुरबा दोष है है,सानी में 'लाया' शब्द को "लाये" करने से ऐब निकल जाएगा ।
'बैठक में ला के रख दी वो शोभा बढ़ाने को'
सानी में 'किताबों' शब्द बहुवचन है इसलिये इस मिसरे को यूँ कहना उचित होगा:-
'बैठक में लाके रख तो दीं शोभा बढ़ाने को'
'इस दौर कह के झूठ है अन्नों की बात को'
इस मिसरे में वाक्य विन्यास ठीक नहीं,बदलने का प्रयास करें ।
आ. भाई रवि शुक्ला जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्षमण जी इस उम्दा गजल के लिये हार्दिक बधाई पेश है नया जोड़ा गया शेर बहुत अच्छा लगा फिर से मुबारक बाद
प्रिय बहन सुचि, स्नेहाशीष । गजल पर उपस्थित व प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
एकनया शेर जोड़ा है । इसे भी देखिएगा
किसने गिने विवाह में आशीष कितने हैं
भाया हिसाब सबको लिफाफों ने जो कहा।।
वाहः हर बात डंके की चोट पर यतार्थ को बयां करती हुई।
सभी शेर एक से बढ़कर एक नए हैं भाई लक्ष्मण धामी जी।
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