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करने को नित्य पाप जो गंगा नहायेंगे
हम से अधिक न यार कभी पुण्य पायेंगे।१।
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तन के धुलेंगे पाप न पावन जो मन हुआ
अंतस में ग्लानि होगी तो गंगा को आयेंगे।२।
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कोसेेंगे एक दिन तो स्वयं अपने आप को
अपनी नजर से बोलिए क्या क्या छिपायेंगे।३।
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हम को भले ही भाव न तुम दो अभी मगर
घन्टी बजा कलम से तो हम ही जगायेंगे।४।
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जिनको शऊर आया न दीपक जलाने का
कहते हैं रोशनी को वो सूरज उगायेंगे।५।
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अब जिन के पाप ढोते यूँ बेबस धरा हुई
कहते हैं वो ही चाँद पे बस्ती बसायेंगे।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, सराहना व मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद।
इस मिसरे को यूँ देखिएगा-
/करने को लौट पाप जो गंगा नहायेंगे
कैसे भला वो लोग अधिक पुण्य पायेंगे
// (यहाँ आशय यह है कि लोग मन से प्रायश्चित करने नहीं जाते । केवल तन धोकर आ जाते हैं)
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//घन्टी बजा कलम से तो हम ही जगायेंगे.....
(क्या यहाँ नया रूपक गढ़ना अनुचित है ?) सादर
आ. लक्ष्मण जी,
ग़ज़ल का कहन थोडा उलझा हुआ है ..
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करने को नित्य पाप जो गंगा नहायेंगे.... पाप करने के लिए कौन गंगा नहाता है??
हम से अधिक न यार कभी पुण्य पायेंगे.... इसमें ऐसा लग रहा है कि आप अपने यारों को आपसे कम पुण्यात्मा बता रहे हैं.
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घन्टी बजा कलम से तो हम ही जगायेंगे.....कलम से घण्टी बजाने का कोई रूपक मुझे ध्यान नहीं आता...
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बाकी ग़ज़ल के लिए बधाई
प्रिय बहन सुचि जी, स्नेहाशीष ।गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई आज़ी तमाम जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
सादर प्रणाम आ धामी सर
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । आपकी उपस्थिति से गजल मुकम्मल हुई...आभार।गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए पुनः आभार..
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'कोसोगे एक दिन तो स्वयं अपने आप को
अपनी नजर से बोलिए क्या क्या छिपायेंगे'
इस शैर में शुतर गुरबा दोष है,ऊला में 'कोसोगे' को "कोसेंगे" कर लें ।
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