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चाहत नहीं कि सब से ही मिलती दुआ रहे
केवल जगत में शौक से नेकी बचा रहे।१।
*
हम को कहो न आप गुनाहों का देवता
पापों की गठरी आप की हम ही जला रहे।२।
*
चाहत सभी को नींद जो आये सुकून की
इस को जरूरी रात में कोई जगा रहे।३।
*
माना बुरे हैं दाग भी हमको लगे हैं पर
वो ही उठाये उँगली जो केवल भला रहे।४।
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अपनी ही आखें बन्द हैं मानो ये साथियो
अच्छे दिनों को खूब वो कब से दिखा रहे।५।
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झगड़ा न करके शांति से रहना नसीब हो
ईश्वर हमारा आप का जग में ख़ुदा रहे।६।
मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर जी, पुनः उपस्थिति व मार्गदर्शन के लिए आभार।
'केवल समझ के फर्ज ही नेकी बचा रहे'
इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें:-
'बस नेकियों का अपनी अमल ये बचा रहे'
'पर चौकसी को रात में कोई जगा रहे'
इस मिसरे में 'जगा' शब्द उचित नहीं,उचित लगे तो इस मिसरे को यूँ कहें:-
'तो चौकसी को शब में कोई जागता रहे'
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए धन्यवाद । इंगित मिसरों को सुधारने का प्रयास किया है । देखियेगा....
/केवल समझ के फर्ज ही नेकी बचा रहे
/
पर चौकसी को रात में कोई जगा रहे
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
केवल जगत में शौक से नेकी बचा रहे'
ये मिसरा मेरी समझ में नहीं आया ।
'इस को जरूरी रात में कोई जगा रहे'
इस मिसरे का शिल्प भी मेरी समझ में नहीं आया ।
आ. भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थित व उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थित व उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
सादर प्रणाम धामी सर खूबसूरत ग़ज़ल हुई है
सहृदय बधाई
आ. लक्ष्मण जी.
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है.
बधाई
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