सुलगते अँधेरे .......
न जाने आज
मन इतना उदास क्यों है
लगता है
स्मृतियों की सीलन से
मन की दीवारें
भुरभुरा सी गई हैं
यादों के पारदर्शी प्रतिबिम्ब
जैसे गिरती दीवारों पर
मन की बेबसी पर
अट्टहास लगा लगा रहे हों
कितनी ढीठ है
ये बरसाती हवा
जानती है मेरी आकुलता को
फिर भी मुझे छू कर
मुझसे मेरा हाल पूछती है
अब अच्छी नहीं लगतीं मुझे
आहटें
मन के वातायन पर गूँजती
बेसुरी दस्तक की थपथपाहट
मेरी प्रतीक्षा को
बार-बार पुनर्जीवित कर जाती है
डरती हूँ
मन की गिरती हुई
भुरभुरी दीवारों के नीचे
दब कर न रह जाए
मेरी प्रतीक्षा
शायद इसीलिए
आज मेरे मन में
उदासियों के डेरे हैं
सुलगते अँधेरे हैं
बुझे- बुझे सवेरे हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
अन्धेरे --''अँधरे''
'अब अच्छी नहीं लगती मुझे
आहटें'
इस पंक्ति में 'लगती' को "लगतीं" कर लें ।
आ. भाई सुशील जी, सुंदर प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई।
नमस्कार, आदरणीय ! मधुर स्मृति ! अच्छी रचना हुई है, लेकिन वर्तनी दोष कम से कम मुझ जैसे आपके चिर- परिचित को आश्चर्य चकित करते हैं, यथा, ' प्रतिक्षा ! इसके अतिरिक्त आप स्वयं अपने घटित सत्य को वाणी दे रहे अथवा किसी स्त्री कवयित्री की मनोदशा का वर्णन कर रहे हैं, स्पष्ट नहीं हो सका ! सादर
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, उत्तम मर्मस्पर्शी रचना हुई है, आह... बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें। सादर।
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