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ग़ज़ल : कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया // -- सौरभ

2122 2122 2122 212

 

ये हुनर है, या लियाकत, दर्द पीना आ गया 
कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया 
 
हम उन्हें क्या कुछ समझते थे बता पाये नहीं
पर उन्हें क्या-क्या बताते, खैर जो बीता, गया 
 
हम न थे काबिल कभी, हमने कभी कोशिश न की 
आपको पर क्या हुआ.. जो आपका दावा गया ?             [संशोधित, सौजन्य आ० समर साहब]
  
मैं निवेदन क्या करूँ संवेदना के मौन से
प्रेम के संधान में जो कुछ गया मेरा गया।
 
जब उनींदी आँखों में बीनाइयाँ घुलने लगीं 
पश्चिमी आकाश में सूरज इशारे पा गया 
 
पुस्तकों के शब्द के विन्यास औ' व्यवहार से 
वस्तुत: वे छल रहे थे, जानना दहला गया ।
  
रात्रि है, बारिश गहन, तिस पर अँधेरे की धमक
सूर्य के आह्वान पर मौसम भला क्या आ गया ? 
 
जो दमकते, कौंधते थे आज सब निस्तेज हैं
एक 'सौरभ' देखिए कुछ इस तरीके छा गया
***
सौरभ 
 
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on July 27, 2021 at 11:59am
वाह आदरणीय जी यथार्थ भावों की सहज अभिव्यक्ति । एक शानदार गजल । हार्दिक बधाई सर
Comment by Samar kabeer on July 26, 2021 at 8:30pm

जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब, बहुत दिनों बाद ओबीओ पर आपकी ग़ज़ल पढ़ने का मौक़ा मिला है ।

ग़ज़ल हमेशा की तरह आपके मिज़ाज के मुताबिक़ इंफ़िरादियत लिये हुए है,और इसकी गहराई तक हर पाठक का पहुँच पाना मुमकिन भी नहीं है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

ये हुनर है, या लियाक़त, दर्द पीना आ गया 
कामकाजी बेटियों का खिलखिलाना भा गया 
बहुत ख़ूब मतला हुआ है ।
 
हम उन्हें क्या कुछ समझते थे बता पाये नहीं
पर उन्हें क्या-क्या बताते, ख़ैर जो बीता, गया 
उम्द: शे'र हुआ ।
 
हम न क़ाबिल थे कभी, हमने कभी कोशिश न की 
आपको पर क्या हुआ.. जो आपका दावा गया ? 
इस शे'र के ऊला मिसरे में 'न क़ाबिल' शब्द पर विचार करें, मेरे ख़याल से ये मिसरा यूँ लहना बहतर होगा:-
'हम न थे क़ाबिल कभी हमने कभी कोशिश न की'
इस तब्दीली का सबब ये है कि  'क़ाबिल' शब्द के पहले 'न' लघु में लेना उचित नहीं होता, 'न' को क़ाबिल के बाद लेना उचित होता है,जैसा कि मैंने अक्सर देखा है,जैसे एक फ़िल्मी गीत का ये मिसरा:-
'हम तो इस क़ाबिल न थे है क़द्र दानी आपकी'
 
मैं निवेदन क्या करूँ संवेदना के मौन से
प्रेम के संधान में जो कुछ गया मेरा गया।
वाह क्या बात कही है,बहुत ख़ूब ।
 
जब उनींदी आँखों में बीनाइयाँ घुलने लगीं 
पश्चिमी आकाश में सूरज इशारे पा गया 
ये शे'र बहुत तरकीब से कहा गया है,बहुत ख़ूब ।
 
पुस्तकों के शब्द के विन्यास औ व्यवहार से 
वस्तुत: वे छल रहे थे, जानना दहला गया ।
बहुत ही महीन बात है,जो आपका ही हिस्सा है,बहुत ख़ूब ।
  
रात्रि है, बारिश गहन, तिस पर अँधेरे की धमक
सूर्य के आह्वान पर मौसम भला क्या आ गया ? 
ये शे'र भी बहुत बारीक मफ़हूम लिये हुए है,और दावत-ए-फ़िक्र देता है, वाह वाह ।
 
जो दमकते, कौंधते थे आज सब निस्तेज हैं
एक 'सौरभ' देखिए कुछ इस तरीक़े छा गया
मक़्ता भी ख़ूब हुआ है, वाह ।
एक निवेदन ये था कि ग़ज़ल दिमाग़ से पढ़ने वाली विधा है और इसमें विराम चिन्हों से बचना चाहिये ।
Comment by Chetan Prakash on July 26, 2021 at 8:05pm

नमस्कार, आदरणीय  सौरभ  साहब,  ग़ज़ल प्रथम श्रेणी  का काव्य  है, आपकी प्रस्तुति  से सम्बंधित बिम्ब प्रयोग की उपादेयता  पर चर्चा / समीक्षा  अनावश्यक  बात  है ,  कुछ  समझ में नहीं  आया, प्रभु  ! सादर,,,, !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2021 at 6:59pm

 आ० चेतन प्रकाश जी आप ग़ज़ल को समझें. 

ओबीओ की पाठकीयता इतनी निरीह नहीं है. या थी.

सर्वोपरि, अनावश्यक चर्चा एवं टिप्पणियों से बचें.

सादर

Comment by Chetan Prakash on July 26, 2021 at 5:34pm

आदरणीय सौरभ साहब, नमन! प्रश्न सूर्य जैसे जीवन की धुरी के रुपक पर, मान्यवर आप, अपनी ग़ज़ल के माध्यम से लगा रहे हैं, और, पाठकीयता पर निरीह पाठक की योग्यता / क्षमता पर लगा रहे, बंधु-श्रेष्ठ यह अन्याय है! सादर...! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2021 at 1:13pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आप की एक-पंक्तीय टिप्पणी प्राप्त हुई. 

आप तो पुराने सदस्य हैं. आपसे तथ्य तार्किक तौर पर रखे जाने की अपेक्षा होगी ही. 

जय-जय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2021 at 1:09pm

आदरणीय चेतन प्रकाश जी, सूर्य की 'सार्वभौमिकता' और 'उस पर प्रश्न लगाया' गया है पर अब क्या कहूँ ? आपकी पाठकीयता के प्रति सादर प्रणाम. 

शुभ-शुभ 

Comment by Chetan Prakash on July 26, 2021 at 6:02am

नमन, सौरभ साहब, संयोग से मैंने पहली बार ही आपकी कोई ग़ज़ल देखी, अच्छी

ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें! हाँ, व्याकरण चिन्हों को लगाते आपको कुछ सावधानी ज़रूर बरतनी होगी! यथा, "सूर्य के आह्वान पर मौसम भला क्या आ गया ? " " सूर्य, ज़ाहिर है, सार्भौमिक प्रतीक है, लेकिन आप उसकी ही क्षमता पर प्रश्न लगा रहे हैं"! सादर... ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 25, 2021 at 11:11pm

जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' साहब, आपकी दरियादली और मुखर स्वीकृति के प्रति हार्दिक धन्यवाद. आप अपनी पहली टिप्पणी को अब इसी सापेक्ष पुन: देख जायँ और अपनी हिदायत पर ग़ौर फ़रमाएँ.

आपने अपनी बात कही, मैं मुतास्सिर हूँ.

सीखना कभी खत्म नहीं होता. हमने इस पटल से बहुत कुछ सीखा है. आगे भी सीखते रहेंगे. लेकिन पाठकों से यह भी अपेक्षा करेंगे कि प्रस्तुतियों पर हठात विवेचना न करें. 

आपकी वैचारिकता का स्वागत है. आपकी टिप्पणी ही आपके विचारों की परिचायक है.

हम प्रस्तुत ग़ज़ल पर तार्किक हों.

शुभ-शुभ

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 25, 2021 at 9:21pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, टिप्पणी पर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका धन्यवाद। आपसे सादर निवेदन है कि कृपया मेरा शुमार रचनात्मकता से अन्याय करने वालों में न करें, क्योंकि मैं रचनात्मकता का बहुत सम्मान करता हूँ और आपका भी बहुत सम्मान करता हूँ। आपकी इस ग़ज़ल पर मेरी टिप्पणी  एक पाठकीय टिप्पणी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हो सकता है कि एक पाठक के रूप में मुझे अभी बहुत कुछ सीखना बाक़ी हो, मगर एक बात मैं पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं हमेशा हर रचनाकार की हर रचना को पूरे लिहाज़ और सम्मान के साथ पढ़ने के बाद ही टिप्पणी देता हूँ, और यहाँ भी ऐसा ही किया है, फिर भी अगर आपके या आपकी रचना के सम्मान में कोई कमी रह गई हो तो मेरी पहली ग़लती समझ कर क्षमा कर दीजिएगा। सादर। 

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