हाँ में हाँ मिलाइये
वर्ना चोट खाइए.
.
हम नया अगर करें
तुहमतें लगाइए.
.
छन्द है ये कौन सा
अपना सर खुजाइये
.
मीर जी ख़ुदा नहीं
आप मान जाइए.
.
कुछ नये मुहावरे
सिन्फ़ में मिलाइये.
.
कोई तो दलील दें
यूँ सितम न ढाइए.
.
हम नये नयों को अब
यूँ न बर्गलाइये.
.
नूर है वो नूर है
उस से जगमगाइए. .
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
कोई बात नहीं जनाब मैं समझ सकता हूँ। its ok.
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब.
आप को ग़ज़ल पसंद आई इसका आभार ..
मैं कभी किसी की टारगेट क्र के रचना नहीं कहता .. अगर कहता हूँ तो पोस्ट नहीं करता..
यह मात्र एक अभिव्यक्ति है . इसके इतर कुछ नहीं..
आपको यदि ऐसा लगा कि मैंने आपको टारगेट किया.. तो शायद मेरे लेखन में परिस्थितिजन्य तल्खी रह गयी हो .. जिसके लिए मैं मंच से और आपसे क्षमा चाहता हूँ ..
जब दिल्ली में एक बहुत बड़े दो तीन जोकर विराजमान हैं तो आपस में क्या तंज़ किये जाएँ.
सादर
आदरणीय निलेश जी आदाब, ख़ास तौर पर मेरे लिए छोटी बह्र में अच्छी तन्ज़िया ग़ज़ल कही आपने, इस ज़र्रा नवाज़ी के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ। आपसे प्रेरणा लेकर एक छोटा सा प्रयास मैं भी करना चाहूँगा। सादर।
आ. सालिक साहब,
बहुत बहुत आभार जो आप ग़ज़ल तक पहुँचे..
कवि/ शाइर का काम भावों को रचना के माध्यम से प्रेषित करने का होता है..
जब जैसे भाव हों उन्हें छन्द/ लय आदि में बाँध कर पेश कर दिया जाना चाहिए..
ग़ज़ल का आम शे'र भी हो तो वह अपने आप पर, आसपास पर तन्ज़ करता ही रहता है ..
ग़ालिब ही को लें.. कहते हैं ..
ग़ालिब वज़ीफ़ाख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं..
सादर
आदरणीय भाई Nilesh Shevgaonkar जी
सादर नमस्कार
बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने , बधाईयाँ स्वीकार करें। आपके इसी तन्ज़िया मिज़ाज़ का मैं कायल हूँ। भई वाह।
धन्यवाद आ. दयाराम मेठानी जी
आदरणीय निलेश जी, छोटी बह्र व कम शब्दों में आपने बहुत सुंदर व दमदार ग़ज़ल कही है। बधाई आपको।
धन्यवाद आ. चेतन प्रकाश जी ..
कवि का काम कविता करना होता है.. आलोचक का काम आलोचना करना ..
मैं अपना काम कर रहा हूँ ..
सभी भारतीय भाषाओँ की तरह उर्दू भी बड़ी प्रोग्रेसिव ज़बान है और नए नये प्रयोग करती रहती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उर्दू का भारतीयकरण से फ़ारसी-अरबी-करण करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है ठीक वैसा ही जैसा हिन्दी का संस्कृत-करण थोपा जा रहा है.
भाषाई शुद्धता के नाम पर ईमाम-बाड़ा जैसा साधारण शब्द ईमाम-बारगाह में तब्दील हो गया है ..
ऐसे कथित लोगों को जो उर्दू के फ़ारसी मूल पर या गर्व करते हैं या तंज़ करते हैं (दोनों टाइप के) उन्हें आरज़ू लखनवी को पढ़ना चाहिए जिनका पूरा मजमुआ यानी काव्य संग्रह उर्दू में है और जिस में एक भी फ़ारसी-अरबी शब्द उन्होंने नहीं लिया है ..संग्रह का नाम सुरीली बाँसुरी है ..
ग़ज़ल ने हर प्रचलित आवृत्ति स्वीकार की है .. नई ग़ज़ल के दौर में कई वरिष्ठ शायर जो सिर्फ जुल्फों, साक़ी मैख़ानों को ही शायरी समझते है ने ना फैज़, मजाज़ का बहुत विरोध किया.. हुआ क्या? मुनव्वर माँ ले आए.. और राहत attitude ..
चीख-पुकार तो मचेगी ही .. क्यूँ कि कईयों को उर्दू के भारतीय होने पर शर्मिंदगी होती है .. उर्दू भारत से कुछ ले तो छोटा पन लगता है इसलिए शायद उर्दू जब मात्रिक छन्द में ग़ज़ल कहती है तो उसे मात्रिक छन्द न मान कर उसे भी बह्र-ए मीर कहने लगते हैं.. मीर यह सुन लेते तो बेचारे वाकई बहरे मीर हो जाते
खैर.. रस्ता लम्बा है..यात्रा जारी रहेगी
आदाब, भाई, नीलेश शेवगांवकर साहब, क्या सच बयानी की है, आप बधाई के पात्र है ! अंग्रेजी में एक कहावत है, "Who will bell the cat", आप ने ओ बी ओ पर इसका जवाब दिया है ! ग़ज़ल अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई है, शिल्प भी अनूठा है ! अनावश्यक ही कुछ लोग यहाँ यह समझ पाने में असमर्थ हैं की हम भारत वासी दशकों से हिन्दुस्तानी लिख बोल रहे हैं ! साथ ही उर्दू भी हिन्दुस्तान में ही जन्मी है! भाषा कोई भी हो, मानव , सही कहूँ तो समाज की प्रोडक्ट है, लेकिन लोग हैं कि मानने के लिए तैयार नही है ! भाषा किसी देश की पहचान होती है और उस भूभाग की प्रमुख नदी के समान वहाँ की सभ्यता -संस्कृति का आइना होती है ! सो ग़ज़ल को भी अन्य विधाओं की तरह सभी भाषा और शिल्प गत प्रवृत्तियों को स्वीकार करना होगा । न जीवन जड़ होता है और न साहित्य / काव्य , इतनी सी बात लोगों की समझ में नही आती । सादर
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