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जरा सा मसअला है ये नहीं तकरार के क़ाबिल
किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल
न ये संसार है मेरे किसी भी काम का हमदम
नहीं हूँ मैं किसी भी तौर से संसार के क़ाबिल
न मेरी पीर है ऐसी जिसे दिल में रखे कोई
न मेरी भावनायें हैं किसी आभार के क़ाबिल
ये मुमकिन है ज़माने में हंसी तुझसे ज़ियादा हों
सिवा तेरे नहीं कोई मेरे अश'आर के क़ाबिल
मेरे आँसू तुम्हारी आँखों से बहते तो अच्छा था
मगर ये अश्क़ भी तो हों तेरे रुख़सार के क़ाबिल
न जाने क्यों बहारें इस कदर से रूठ कर बैठीं
नहीं तो ज़ीस्त थी 'ब्रज' की गुले गुलज़ार के क़ाबिल
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय नीलेश जी...आपने एक बारीक कमी की ओर ध्यान दिलाया है...उसके लिए हार्दिक धन्यवाद।दरअसल हम जैसे लोग जो रोजमर्रा में बोलते हैं उसे ही सही मान बैठते हैं।हालाँकि सुधार किया जा सकता है लेकिन इस शब्द को लेकर थोड़ा संशय है।
रेख़्ता शब्दकोश,हिंदवी,और सूफ़ीनाम में 'मुद्दा' शब्द 22 के मात्राभार से बताया गया है।इसके अलावा कुछ रचनाएं भी पढ़ी हैं जैसे
ग़ालिब की ही ग़ज़ल से "दिल मुद्दई' ओ दीदा बना मुद्दा-अलैह...नज़्ज़ारे का मुकद्दमा फिर रु-ब-कार है"
और
मिरी हयात है महरूम-ए-मुद्दा-ए-हयात
वो रहगुज़र हूँ जिसे कोई नक़्श-ए-पा न मिला
फ़ानी बदायूनी
भी पढ़ने को मिला...कृपया थोड़ा और प्रकाश डालें...क्या वाकई में मुद्दा का प्रयोग अनुचित है? सादर
आ. बृजेश जी,
मुद्दा नहीं मुद्दआ होता है अत: आप मतला पुन: कहें
.
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है,,, ग़ालिब
सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय धामी जी...सादर
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
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