122 122 122 122
कहो तो सुना दूँ फ़साना किसी का
वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का
सुधार
नज़र से महब्बत जताना किसी का
हँसाना किसी का रुलाना किसी का
भुलाओगे कैसे सताना किसी का
नहीं रोक पाई कभी चाहकर मैं
दबे पा ख़यालों में आना किसी का
है यह भी महब्बत का दस्तूर यारो
न दिल भूले जो दिल से जाना किसी का
बहुत कोशिशें कीं मनाने की फ़िर भी
न मुमकिन हुआ लौट आना किसी का
दिल ए बेक़रारी की हद ही तो थी वह
जो समझे नहीं हम बहाना किसी का
नहीं रास आया ज़माने को "निर्मल"
मेरे दिल को अपना बताना किसी का
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
वाह क्या ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीया...बधाई
//वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का ....इज़हार और जताना एक ही वंश के शब्द हैं, लगभग पर्यायवाची //
सहमत ।
आ. रचना जी,
ग़ज़ल पर गुणीजन पहले ही टिप्पणी दे चुके हैं अत: अधिक कहने कि संभावना नहीं है फिर भी मतला देखने से भाषाई त्रुटी ध्यान में आती है.
वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का ....इज़हार और जताना एक ही वंश के शब्द हैं, लगभग पर्यायवाची अत: इस पर गौर करें.
सादर
//कि ख़ुद से भी ज़्यादा भरोसा किया था'//
जनाब अमीर साहिब, आपके सुझाये इस मिसरे में आपने 'ज़ियाद:' शब्द को 22 पर लिया है जो ग़ज़ल में उचित नहीं,इसे 122 पर ही लेना उचित होता है
जी मुहतरम बहतर है।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'हँसाना किसी का रुलाना किसी का
भुलाओगे कैसे सताना किसी का'
इस मतले पर जनाब अमीर जी का सुझाव अच्छा है ।
'दिल ए बेक़रारी की हद ही तो थी वह'
इस मिसरे को यूँ कह सकती हैं:-
'हमारी महब्बत की मासूमियत थी'
//कि ख़ुद से भी ज़्यादा भरोसा किया था'//
जनाब अमीर साहिब, आपके सुझाये इस मिसरे में आपने 'ज़ियाद:' शब्द को 22 पर लिया है जो ग़ज़ल में उचित नहीं,इसे 122 पर ही लेना उचित होता है ।
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर जी ग़ज़ल तक आने के लिए बेहद शुक्रिय:। आपने मतला बहुत अच्छा कर दिया आभार।शेर पर इस्लाह आपकी अच्छी है पर तक़ाबुल ए रदीफ़ एब आ जाएगा।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ख़ूबसूरत अहसासात से लबरेज़ अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता हूँ।
कुछ मशविरे पेश करना चाहता हूँ,
'हँसाना किसी का रुलाना किसी का
भुलाओगे कैसे सताना किसी का' इस शे'र में शेरियत कम है, मुनासिब समझें तो यूँ कर सकते हैं -
'हँसाना रुलाना रुला कर हँसाना
भुलाएं वो कैसे सताना किसी का'
'दिल ए बेक़रारी की हद ही तो थी वह' इस मिसरे का शिल्प और वाक्य विन्यास सही नहीं है, मिसरा यूँ कह सकते हैं -
'कि ख़ुद से भी ज़्यादा भरोसा किया था'
जो समझे नहीं हम बहाना किसी का' सादर।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online