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ग़ज़ल नूर की --- ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते

.
ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते
तो आफ़ताब से बढ़कर चमक रहे होते.
.
बदन की सिगड़ी के शोलों पे पक रहे होते
वो मेरे साथ अगर सुब्ह तक रहे होते.
.
तेरी शुआओं को पीकर बहक रहे होते
मेरी हवस को मेरे होंट बक रहे होते.
.
सुकून मिलता हमें काश जो ये हो जाता
कि हम भी यार के दिल की कसक रहे होते.   
.
तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है
वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते.
.
लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम
अगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.

अगर शजर न भी होते तो हम से ख़ुशकिस्मत
किसी की ज़ुल्फ़ किसी की पलक रहे होते.
.
सराय छोड़ी तो घर तक पहुँच सके हैं हम
बदन में रहते तो अब तक भटक रहे होते.  
.
अगर ये ‘नूर’ मियाँ आदमी न होते तो
वो मंज़िलों से मिलाती सड़क रहे होते.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2021 at 5:31pm

आभार आ. आज़ी तमाम भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2021 at 5:30pm

आभार आ. लक्ष्मण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2021 at 5:30pm

आभार आ. बबृजेश जी 

Comment by Aazi Tamaam on December 17, 2021 at 9:47pm

वाह आ नूर जी बेहद खूब ग़ज़ल हुई

बधाई स्वीकार करें

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 17, 2021 at 9:14pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 17, 2021 at 8:28pm

आदरणीय नीलेश जी...बहुतख़ूब ग़ज़ल कही...हमेशा की तरह विमर्श से उपयोगी जानकारी भी प्राप्त हुई...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 13, 2021 at 8:07am
आभार आ. समर सर
Comment by Samar kabeer on December 12, 2021 at 12:01pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, हर शे'र उम्द: हुआ है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on December 11, 2021 at 10:27pm

//उस्ताद ज़ौक़ के मिसरे में न न की तक़रार है//

मैं इसके लिए उस्ताद ज़ौक़ की तरफ़ से मुआफ़ी चाहता हूँ:-)))

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 11, 2021 at 10:08pm

आ. समर सर,

उस्ताद ज़ौक़ के मिसरे में न न की तक़रार है।

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