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जिसको हुआ गुमाँ कि 'ख़ुदा' हो गया है वो
रुस्वाई के भंवर में तो ख़ुद जा गिरा है वो
अच्छा भला था 'ख़ुल्द' में 'इब्लीस' हो गया
झूठी अना की शान को मुन्किर हुआ है वो
हद से ज़ियाद: ख़ुद पे भरोसे का ये हुआ
थूका जो आस्मान पे मुँह पर गिरा है वो
मिट्टी जो फेंकी चाँद पे मैला नहीं हुआ
करनी पे अपनी ख़ुद ही तो शर्मा रहा है वो
थोड़ी सी धूप के लिये था जो रवाँ-दवाँ
सूरज को ले के दीप दिखाने खड़ा है वो
जिस ने किया घमंड वही मिट गया है यूँ
ख़ुद अपनी आग में ही फ़ना हो गया है वो
उसका शऊर खो गया है आज-कल 'अमीर'
बेचारा उलझनों में जो उलझा हुआ है वो
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, ख़ाकसार की ग़ज़ल पर आपकी पुर-ख़ुलूस नवाज़िशों का तह-ए-दिल से शुक्रिया जनाब।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का मतला कुछ आपत्तियों के बाद मूल रूप से बदल दिया गया है, इसलिए कुछ भर्ती के शब्द आ गये हैं, सानी के लिये आपका सुझाव "रुसवाई के भँवर में जाकर ख़ुद गिरा है वो" बह्र के अनुकूल नहीं है। "गुमाँ" को "गुमान" करने वाले सुझाव से सहमत हूँ। ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया।
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर जी अच्छी ग़ज़ल हुई है। बधाई स्वीकार करें। बहुत अधिक तो नहीं जानती फ़िर भी ..
मतले में मुझे "कि" और "तो" भर्ती के लगे।
//जिसको हुआ गुमाँ कि 'ख़ुदा' हो गया है वो
रुस्वाई के भंवर में तो ख़ुद जा गिरा है वो//
मुझे लगता है कि "गुमाँ" को "गुमान" कर सकते हैं
सानी के लिए सुझाव
"रुसवाई के भँवर में जाकर ख़ुद गिरा है वो"
सादर।
आभार आदरणीय अमीरुद्दीन साहब ।
आदरणीय गणेशजी बाग़ी साहिब आदाब, आपकी और सभी सम्मानित सदस्यों की आपत्ति के बाद मतले को एडिट करने का अनुरोध स्वीकार कर मतले को एडिट करने का प्रयास करता हूँ। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन साहब, भाई नीलेश और साथियों के कहे से सहमत होते हुए कहना है कि मतला का कहन बिलकुल ही उचित नही लग रहा और आपके कद के अनुरूप भी नही है ।
अनुरोध है कि मतला को एडिट कर दें ।
बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय अमीरुददीन "अमीर" साहब जी। बेहतरीन ग़ज़ल
जिस ने किया घमंड वही मिट गया है यूँ
ख़ुद अपनी आग में ही फ़ना हो गया है वो ।
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