1222 - 1222 - 1222 - 1222
हँसी में उनकी हमने वो छुपा ख़ंजर नहीं देखा
हसीं मंज़र ही देखा था पस-ए-मंज़र नहीं देखा
वो जैसा उनको देखा है कोई दिलबर नहीं देखा
हसीं तो ख़ूब देखे हैं रुख़-ए-अनवर नहीं देखा
ज़माने में कहीं तुम सा कोई ख़ुद-सर नहीं देखा
सितमगर तो कई देखे मगर दिलबर नहीं देखा
वो मेरे ज़ाहिरी ज़ख़्मों को मुझसे पूछते हैं क्या
दिवानों ने कभी दिल में चुभा नश्तर नहीं देखा
जो कहते थे तुम्ही तो इक हमारे दिलमें रहते हो
न जाने क्यों उन्होंने ये दिल-ए-मुज़्तर नहीं देखा
बड़ा ग़मगीन करता है मुझे उसका बिखर जाना
कभी मानिंद-ए-शीशा टूटता पत्थर नहीं देखा
कहाँ लेकर ये ख़ाली हाथ मौला मैं चला जाऊँ
तेरे दर के सिवा मैंने तो कोई दर नहीं देखा
हम अपने रब की सारी निअमतों को भूल बैठे हैं
ज़माने में 'अमीर' इन्सान-सा ख़ुद-सर नहीं देखा
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया।
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी ।
हार्दिक बधाई आदरणीय अमीरुददीन "अमीर" साहब जी। बेहतरीन ग़ज़ल
कहाँ लेकर ये ख़ाली हाथ मौला मैं चला जाऊँ
तेरे दर के सिवा मैंने तो कोई दर नहीं देखा ।
बहुत शुक्रिया जनाब आज़ी तमाम साहिब।
वाह आ ख़ूब ग़ज़ल हुई
//ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है आदरणीय
बहुत बहुत बधाई
नियमानुसार बहर अवश्य लिखा करें तो अच्छा रहेगा
इस ग़ज़ल की बहर 1222×4 लग रही है//
जनाब मनोज अहसास जी ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु आभार ।
मान्यवर! नियमानुसार... किस नियम की बात कर रहे हैं आप, कृपया अवगत कराने का कष्ट करें, वैसे मेरी अधिकतर ग़ज़लों पर पर बह्र लिखी होती है, हालांकि ओ बी ओ पर ऐसा कोई नियम मेरी जानकारी में नहीं होने के बावजूद भी पाठकों और विश्लेषकों की सुविधा के लिए मैं बह्र लिखता रहा हूँ, मगर "अवश्य लिखा करें" ये आदेशात्मक आज्ञा आप उन्हें क्यों नहीं देते हैं जो अपनी ग़ज़लों पर कभी बह्र नहीं लिखते हैं?
इस ग़ज़ल की बह्र को आपने सही पहचाना है, कभी-कभी ये मशक्कत करना भी अच्छा होता है। सादर।
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है आदरणीय
बहुत बहुत बधाई
नियमानुसार बहर अवश्य लिखा करें तो अच्छा रहेगा
इस ग़ज़ल की बहर 1222×4 लग रही है
सादर
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