1212 - 1122 - 1212 - 112
इबादतों में अक़ीदत की सर-कशी न मिला
महब्बतों में मेरे यार दुश्मनी न मिला
हवाओं में न कहीं अब ये ज़ह्र घुल जाए
फ़ज़ा को साफ़ ही रहने दे शोरिशी न मिला
कहीं नहीं है कोई ग़ैर दूर-दूर तलक
मगर क़रीब भी मुझको मेरा कोई न मिला
सिहर उठा हूँ किया याद वक़्त वो जब जब
चिता को आग लगाने को आदमी न मिला
मिले हैं यूँ तो हज़ारों हसीं ज़माने में
जिसे तलाशता रहता हूँ बस वही न मिला
रहा था साथ मेरे उम्र भर जो साया बन
बिछड़ के फिर वो मुझे उम्र भर कभी न मिला
कहाँ गये जो मुझे अपने ही से दिखते थे
'अमीर' कब से ज़माने में आदमी न मिला
"मौलिक व अप्रकाशित"
अक़ीदत की सर-कशी - स्वेच्छारी आस्था,
शोरिशी - उपद्रव होने की अवस्था।
Comment
मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। 'वो वक़्त याद किया... पर आपसे पूर्णतया सहमत हूँ, फ़ोन पर हुई चर्चा में आपके अनुमोदन से "सिहर उठा हूँ किया याद वक़्त वो जब जब" कर रहा हूँ। दुआओं का तालिब।
जनाब अमीरूद्दीन 'अमीर' जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें I
'वो वक़्त याद किया ख़ुद सिहर उठा मैं जब'-- मुझे इस मिसरे का वाक्य विन्यास ठीक नहीं लगा, उचित लगे तो यों कर सकते हैं :-
'वो वक़्त याद किया जब सिहर उठा था मैं "
आदरणीय दयाराम मेठाणी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी, बहुत अच्छी एवं संदेश परक गज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें। गज़ल का मुखड़ा ही बहुत सुंदर संदेश दे रहा है —
इबादतों में अक़ीदत की सर-कशी न मिला
महब्बतों में मेरे यार दुश्मनी न मिला
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्धन हेतु आभार। सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। जी, ज़ह्र को भूलवश 12 पर लिया गया है ध्यान दिलाने के लिए शुक्रिया, मिसरे को कृपया यूँ पढ़ा जाए -
"हवाओं में न कहीं अब ये ज़ह्र घुल जाए" सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन "अमीर" जी अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें। आदरणीय ज़ह्र का वज़्न क्या लिया है।
सादर।
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
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