1।।
कभी डाँट से तो कभी स्नेह दे के पिता ने किया पूर्ण कल्यान मेरा
पढ़ाया लिखाया सिखाया मुझे जो उसी से हुआ आज उत्थान मेरा
नहीं जो पिता साथ होते कभी तो, लगा यों कि संसार वीरान मेरा
पिता का नहीं नाम जो साथ होता न होता कही आज सम्मान मेरा
2।।
पिता में बसे तीर्थ सारे हमारे उन्हीं में सदा ईश का भान पाया
पिता के बिना जो पड़ी मुश्किलें तो स्वयं को निरामूर्ख नादान पाया
निजी ज़िन्दगी में पिता जी सरीखा रहा दोस्त जो वो न इंसान पाया
पिता चीज़ क्या है, बना मैं पिता तो, पिता की महत्ता तभी जान पाया
नाथ सोनांचली
विधान: यमाता × 8 अर्थात
122 122 122 122 122 122 122 122
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी सादर अभिवादन।
रचना पर आपकी उपस्थिति और आत्मिक प्रतिक्रिया का हृदयतल से आभार
आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन। सुन्दर छन्द हुए हैं । हार्दिक बधाई।
आद0 चेतन प्रकाश जी सादर अभिवादन। आपकी रचना पर उपस्थिति और आत्मिक प्रतिक्रिया से आह्लादित हूँ। आभार आपका
नमस्कार, भाई, नाथ सोनांचली, बेहद सार्थक, सटीक भावों से ओत- प्रोत महाभुजंग प्रयात छंद लिखे, आपने । एतद्वारा आपको बधाई प्रेषित करता हूँ । आपके पिता, दीर्घायु हों !
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। रचना को पोस्ट करने के बाद आपकी उपस्थिति का मुझे सदैव इतंजार रहता है। आपकी टिप्पणी मेरे लिए आशीष है। हृदयतल से आभार आपका।
जनाब नाथ सोनांच्ली जी आदाब, पिता को समर्पित अच्छे छंद लिखे आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
आद0 चेतन प्रकाश जी सादर अभिवादन। सुधार कर दिया हूँ। हृदयतल से आभार आपका
अच्छा प्रयास किया, बंधुवर, बधाई ! किन्तु तीसरे पद को देखिए, यमाता की लय भंग हो रही है!
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