गीत
*
कच्चे रास्तों गडारों से,
गाड़ी निकल रही है।
*
जा रहे हैं किधर कोई,
बूझता ही नहीं।
फूट रहे हैं सर क्योंकर,
सूझता ही नहीं।
*
अनसुने नारों किनारों से,
गाड़ी निकल रही है।
*
होने लगी सौहार्द की,
मरघटों में सभा।
बची-खुची रिश्तों में की,
खोजते हैं वफ़ा।
*
सूखते टूटे अवारों से,
गाड़ी निकल रही है।
*
स्वप्न जैसे आशियाने,
टूटते घर कई ।
बाहर किताबों से निकल,
भटकते सर कई।
*
बचते-बचाते इशारों से,
गाड़ी निकल रही है।
#
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय ब्रजेश कुमार जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना पर उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार. सादर
सरस और नव प्रवाह से सम्मोहित करती हुई रचना ...हार्दिक बधाई आदरणीय
आदरणीय चेतन प्रकाश जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना केलिए आपका हार्दिक आभार.
वर्तमान दशा में " बची खुची रिश्तों में की" अगली पंक्ति " खोजते हैं वफा " से असम्बद्ध है !...........यहाँ असम्बद्धता जैसा तो प्रतीत नहीं हो रहा है किन्तु 'भी' वाला आपका सुझाव उत्तम है. सादर
बंधुवर, अच्छा गीत रचा, आपने । दूसरा अन्तरा बेहतर हो सकता था और सार्थक भी ।
बशर्ते 'की' को हटाकर " भी" हो जाए ! आपने स्वयं 'गीत ' को नवगीत कहा है, अत: अन्तयानुप्रास तो स्वर से ही पर्याप्त हो जाएगा ! और र, वर्तमान दशा में " बची खुची रिश्तों में की" अगली पंक्ति " खोजते हैं वफा " से असम्बद्ध है !
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत गीत रचना पर उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार. सादर
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब , भुत अच्चा गीत रचा है आपने , इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर साहब सादर, आपका कहना गलत नहीं है. क्योंकि यह एक नवगीत है. नवगीत की रचनाएं अक्सर कविता जैसी ही होती है.सादर
आदरणीय अशोक रक्ताले जी आदाब, मुझे आपकी यह रचना गीत से ज़ियादा हिन्दी की ख़ूबसूरत नज़्म लगी है, बधाई स्वीकार करें।
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