दर्द है तो कभी दवा है ये,
इश्क़ है या कि मोजज़ा है ये.
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जो बिख़रने का सिलसिला है ये
ख़ुशबू होने ही की सज़ा है ये.
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हम जो रोते हैं कुफ़्र होता है
मज़हब-ए-इश्क़ में मना है ये.
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अपनी ताक़त को वो समझता है
हुस्न के साथ मसअला है ये.
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ख़त भला तेरा मैं जलाऊँगा?
आँसुओं से भभक गया है ये.
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हम तो फिरऔन इसको कहते हैं
ये समझता रहे ख़ुदा है ये.
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ग़म यहीं है यहीं कहीं होगा
तेरे देखे से छुप गया है ये.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीलेश शेवगांवकर साहिब, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई।
/आपका कहना सही है लेकिन मैं मना को मनअ न लिखता हूं और न बोलता हूं।/
आपकी इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ जनाब, ये आपके लिखने या बोलने की बात नहीं है, आख़िर 'मनअ' के एक standard हिज्जे और तलफ़्फ़ुज़ हैं। अगर हर ग़ज़लगो अशआर में अपने बोलने के हिसाब से या जो वज़्न उसे समझ आता है उसके अनुसार वज़्न रखने लगेगा तो इस कला का बुरा हश्र होगा, और फिर हमें लुग़ात और जनाब समर कबीर साहिब जैसे उस्तादों की भी कोई ज़रुरत नहीं रहेगी।
पुनश्च : ग़ज़ल कहने के _कौशल ! शुभ प्रभात !
आ. नीलेश शेवगांवकर साहब, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने। विशेषत: यह शे'र मुझे अच्छा लगा,
अपनी ताक़त को वो समझता है,
हुस्न के साथ मस अला हे ये "।
हाँ, लेकिन जनाब एक शिक़ायत भी है, ओ बी ओ के मुशायरे में आपके ग़ज़ल कहने के बेलौस और परामर्श का लाभ हमको नहीं मिल रहा है !
सादर
धन्यवाद आ. रक्ताले जी
धन्यवाद आ. समर सर।
आपका कहना सही है लेकिन मैं मना को मनअ न लिखता हूं और न बोलता हूं।
सादर
जनाब निलेश 'नूर' जी आदाब, तरही मिसरे पर बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'मज़हब-ए-इश्क़ में मना है ये'
इस मिसरे में क़ाफ़िया ग़लत है,सहीह शब्द "मन'अ" 21 है, देखिएगा ।
हम तो फिर'औन इसको कहते हैं
ये समझता रहे ख़ुदा है ये......वाह !
आदरणीय निलेश जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें.सादर
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