अज्ञातवास जब समाप्त हुआ
पांडवों में साहस भरा
कनक सदृश तप कर आए
उनमें प्रखर उत्साह का तेज बड़ा।।
कायर दहलता विपत्ति में अक्सर
शूरमा विचलित न कभी हुआ
गले लगाकर हर दुःख-विध्न को
धीरज से उसका तेज हरा।।
कांटो भरी राह पर चलकर
उफ्फ तक न वो कभी किया
धूल के गहने पहन चरण में
साहस के सहारे बढ़ता गया।।
उद्योग निरत नित करता रहता
उसने सब सुख-सुविधाओ का त्याग किया
शूलों के सदा समूल विनाश को
राह स्वयं के विकास की चलता गया।।
कौन सा विध्न जिसे हर न सके वो
गर्व विपत्ति का चूर किया
पर्वत के पर्वत उखाड़ फेंकता
नर क्रोध में जब-जब भड़क गया।।
गुणों की खान है तन नर का ये
जिससे देवों तक को परास्त किया
है किसकी मजाल जो सामने आएं
सदा आत्मविश्वास का उसके ढंका बजा।।
मेंहदी के जैसी लाली है इसमें
बस समझने में खुद को देर किया
प्रेम,नफ़रत और सहयोग आदि सब
राह में उसकी बाधा बना।।
जब-जब सोना तपता आग में
सुन्दर आभूषण में ढलता गया
निचोड़ा जाता जो गन्ना अंत तक
मीठा-स्वादिष्ट रस मिला।।
दुल्हन-सी सजी थी हस्तिनापुर सारी
नृप स्वागत करने खड़ा
पुत्रवधु संग महारानी कुंती आई
समाज आभूषण कुरूवंश का जिसे कहा।।
शौभा असीमित छाई राष्ट्र में
पर रक्त सयोधन का खोल रहा
विफल हो गया क्यूं लाक्षाकांड भी
सुदृढ़ भाग्य है उनका बड़ा।।
सारे रास्ते बंद सन्धि के
बन कृष्णा को दूत था आना पड़ा
मैत्री का प्रस्ताव लाकर
टालने समर को फिर प्रयास किया।।
पांडवों के हित की जो बात करें
शूल सा उसका शब्द चुभा
न्याय की गुहार चाहे कृष्णा लगाएं
सयोधन का हृदय क्रोध से जल उठा।।
दो न्याय तो आधा राज्य दे दो
पूरा देने को किसने कहा
आधा नही तो पांच गांव ही दे दो
धर्म, न्याय करना है राजा का।।
शासन करो तुम सारी धरा पर
हक तो सबको देना पड़ा
जो दोगे वो स्वीकार करेंगे
वचन देता ये कृष्णा बड़ा।।
क्रोध में भड़का सयोधन सुनकर
बांधने फिर वो कृष्णा चला
असाध्य को वो साधने चला था
दुर्रबुद्धि देखो वो कितना बड़ा।।
जब नाश-विनाश की छाया घेरती
पहले उसका विवेक मरा
बुद्धि भी छोड़ती उसका साथ है
रावण-कंस का सबने पाठ पढ़ा।।
हरि ने जब हुंकार भरी तो
धरती-अम्बर कांप गया
स्वरूप का अपने विस्तार किया तो
महल विशुद्ध प्रकाश से भर गया।।
डगमग-डगमग दिग्गज डोले
समझ न उनके कुछ भी पड़ा
कहां से इतना प्रकाश है
गहन सोच में हर जन खड़ा।।
रस्सी से बांधने उन्हें चला है
जिनका न कोई आदि-अंत पता
अंतर्यामी वो परमेश्वर है
जिन्हें साधारण मनुज था सोच बैठा।।
आ दुर्योधन, आ बांध मुझे अब
सेना को क्यूं आदेश न देता
धरती-अम्बर तीनों लोक समाहित
तू ब्रह्मांड देख मुझमें बसता।।
सूर्य-चंद्रमा ग्रह-तारे देख ले
चर-अचर सब नर-जीव देख ले
सर-सरित सिंधु-मद्र को देख तू
आदि-सृजन महाकाल देख ले।।
ब्रह्म-विष्णु-महेश मुझमें समाते
कड़ती ज्वाला सघन देख ले
सृष्टि-दृष्टि युद्ध सब भ्रांत देख तू
जग जीवन-मरण सब हाल देख ले।।
बांधने चला मुझ ईश्वर को तू
पहले वीर-महावीर का हर्श देख ले
ये रूप तो मेरा है जरा सा
ढूंढ सके तो इसमें खुद को ढूंढ ले।।
युद्ध नही ये विध्वंश बड़ा है
बढ़े काल को आता देख ले
मैं कृष्ण तुझे यही समझाता
मूर्ख न बन तू फिर से सोच ले।।
हित के वचन क्यूं समझ न पाता
तू विकराल-मरण को क्यूं देख न पाता
धराशायी होंगे जानें कितनें योद्धा
इस रण को तू अभी रोक ले।।
भाई-भाई पर टूट पड़ेगा
धनुष से विष-बाण छूट पड़ेगा
अस्त्र-शस्त्र संग ब्रह्मास्त्र चलेंगे
जानें कितनों का फिर लहू बहेगा।।
वायस-श्रृंगार तब सुख भोगेंगे
काल-पिशाचनी नाच उठेंगे
नरभक्षी सब श्रृंगार करेंगे
जब- जब रक्त-मांस के लौथड़े गिरेंगे।।
मानवता मनुज भूल के सारी
हर वीर युद्ध में कूद पड़ेगा
अपना-पराया कोई दिखाई न देगा
उसे शत्रु समझकर टूट पड़ेगा।।
ओ आतातायी, तू अभी मान जा
युद्ध का कारण तू ही बनेगा
एक जो संग्राम छिड़ा तो
फिर भीषण विध्वंस न कभी ये रुकेगा।।
रक्त की धारा बह चलेगी
ढेर की ढेर वहां लाश बिछेगी
गूंज रूदन ही रूदन चारों ओर उठेगा
हर मृत्यु का दोषी तू ही होगा।।
सोच ले एक बार फिर से कहता
बड़ा-बूढ़ा है सब समझाता
रोक सके तो रोक लो इसको
दिखता हर पल हर क्षण पास में आता।।
मैत्री पथ का मैने प्रयास किया ये
क्यूं तूने ठुकरा दिया ये
अन्तिम निर्णय ये मेरा अटल है
इसके बाद अब समर ही होगा।।
सुन्न सन्नाटा था रंगमंच में फैला
श्री कृष्ण अब चुके थे
होश में आए कौरव जैसे नींद से जागे
वहां हताश-निराश हर जन खड़ा था।।
मौलिक व अप्रकाशित रचना
Comment
लक्ष्मण भाई को सादर प्रणाम और बहुत बहुत धन्यवाद की आपने मेरी रचना को अपना कीमती वक़्त दिया
आ. भाई फूल सिंह जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।
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