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221 2121 1221 212
चाहें किसी को और निबाहें किसी से हम
ख़ुश होईये कि हो ही गए आदमी से हम.
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वो आते इस से क़ब्ल दवा काम कर गई
उकता गए हकीम की चारागरी से हम.
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दीवार पर लगी हुई तस्वीर है अना
पीछे से झाँकती हुई इक छिपकली से हम.
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बन्दों में और ख़ुदा में अजब घालमेल है
हम से ही वो बना है, बने हैं उसी से हम.
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सूरज नहीं हैं हम जो किसी रात से डरें
लड़ते रहेंगे सुब्ह तलक तीरगी से हम.
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दुनिया की दौड़ में यूँ पिछड़ते चले गए
आगे निकल न पाए जो अपनी घड़ी से हम.
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निलेश 'नूर'
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर,
आप के इस ग़ज़ल तक आ कर टिप्पणी करने हेतु आभार।
दाद के लिए धन्यवाद।
मैं शाम तक मात्राक्रम लिख कर edit करने प्रेषित करता हूं।
सादर
वाह ! बहुत खूब आदरणीय नीलेश जी. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएँ
ओबीओ की परम्परा के अनुसार बहर की मात्रिकता को प्रस्तुत कर देना था.
पुनः हार्दिक बधाइयाँ
बहुत बहुत आभार आ. लक्ष्मण जी
आ. भाई नीलेश जी सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
शुक्रिया आ. रवि जी,,, आपने भी ठीक जगह ऊँगली रखी...
आभार
वाह वाह आदरणीय नीलेश जी बहुत ख़ुब ग़ज़ल कही है एक से बढ़कर एक शेर हुए है । तीसरा शेर खास तौर पर पसंद आाया । इस उम्दा गजल पर शेर दर शेर मुबारक कबाद कुबूल करे । सादर
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