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हाँ --कहा--- प्यार का इजहार किया था तुमसे

हाँ --कहा--- प्यार का इजहार किया था तुमसे --
हाँ ---कहो --- तुमने भी प्यार किया था हमसे

कसम खुदा की ईमान भी दे देते हम '
कसम खुदा की ये जान भी दे देते हम

उम्र भर अपनी पलकों पे बिठाये रखते '
सारी दुनियां की निगाहों से छुपाये रखते|

मगर अफ़सोस हमारा इरादा टूट गया'
उम्र भर साथ निभाने का वादा टूट गया

अय मेरे दोस्त नया घर तुझे मुबारक हो
नई दुनिया नया शहर तुझे मुबारक हो |

हमारा क्या है दिल पे एक जख्म और सही'
प्यार की राह में ये एक रस्म और सही |

मगर ये तय है के हमको ना भूल पाओगे'
याद हम आयेंगे जब गीत गुनगुनाओगे|

गीत तुम गुनगुनाओगे तुम्हारी आदत है
रोओगे मुस्कराओगे तुम्हारी आदत है |

आज अपनी ही पहचान खो चुके हो तुम'
इस तरह खुद से अनजान हो चुके हो तुम |

हमने जो घर बनाया था कभी वो तोड़ दिया है'
जिस शहर में तुम थे वो शहर छोड़ दिया है |

हाँ मगर आज भी यादों की कसक बाकी है'
फजां में तेरी चूड़ियों की खनक बाकी है

याद करके हमें फिर से ना बुला लेना तुम '
अय मेरे दोस्त हो सके तो भुला देना तुम |

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Comment

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Comment by jagdishtapish on August 22, 2010 at 9:24pm
aadarniya sourav ji rana ji aapne rachna ko pasand kiya apne vichar diye hamari khush nashibi hai sourabh ji aapki panktiyon ko ham dil se taslim karte hai housla afjai ke liye aabhari hain ham aapke ---saadar

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2010 at 3:23pm
बहुत-बहुत बधाई जगदीशभाई.
और वो मीता.. जो साथ-साथ हुआ करता था.. हँसने पर हँसता था.. अपनी खुशियों में शरीक था.. आज वहाँ उस ओर चला गया जहाँ उसका परिचय ही बदल गया है. हम इस पार .. वो उस पार.
आपकी इस कविता की सुन्दरता यही है कि जो सोचो वही रूप अख़्तियार कर लेती है.. मात्र अपने शरीर से सम्बन्धित सम्बन्धों से लेकर समाज या राष्ट्र के बनने भटकने की अवधारणा तक को हम महसूस कर सकते हैं इन पंक्तियों में.

इन मनोदशाओं में मुझे इन पंक्तियों में स्वीकारिए -
खुश्बू तन की है फिर महकी आकर तुम इक बार..
करो दिलदार.. करो दिलदार.. करो दिलदार.. प्यार ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 22, 2010 at 9:24am
जगदीश सर
सुन्दर रचना है .....आचार्य संजीव जी की पंक्तियाँ याद आ गई

ज़ख्म कुरेदेंगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..

छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..
Comment by jagdishtapish on August 21, 2010 at 7:36pm
माननीय नवीन जी
अभी तो कागज के टुकड़े से डायरी तक भी नहीं पहुंची
और ओ बी ओ पर पोस्ट कर दी भाई साहेब किसी भी रचनाकार
की लेखनी में उसका अतीत वर्तमान और भविष्य छुपा होता है जिसे पारखी
निगाहें पढ़ ही लेती हैं |
मीठी सी चुटकी के रूप में आपकी जिज्ञाषा
एक दम स्वाभाविक है मात्र एक पंक्ति में आपने इतना गहरा
सवाल किया
इसलिए प्रसंगवश बहुत ईमानदारी से क्षमा चाहते हुए
चार पंक्तियों में अपनी बात कहने की जुर्रत कर रहा हूँ
ज़िन्दगी तुझ को जी रहा हूँ मैं --
अश्के गम हंस के पी रहा हूँ मैं '
अय मेरे गरेबां में झाँकने वालो
दामन है तार तार सी रहा हूँ में |
हम जानते हैं --- आप जरुर समझ गए होंगे की ----
नासूर बना करते हैं जो --वो जख्म पुराने होते हैं
सादर

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 21, 2010 at 10:12am
आदरणीय जगदीश तपिश जी, अच्छी नज्म पेश किया है आपने, धन्यवाद,
Comment by jagdishtapish on August 21, 2010 at 9:25am
manniya aashish ji
dhaywad aapko
Comment by आशीष यादव on August 20, 2010 at 11:56pm
प्रणाम,
वाह, क्या गज़ब की लाईने हैं| अति सुन्दर

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