नहीं जो हौंसला होता,
न तू काफ़िर हुआ होता |
सभी को भूल जाती मैं,
न कोई रतजगा होता |
न दी आवाज़ ही होती,
न कोई सिलसिला होता |
कहानी कौन कर पाता,
किसे कब कुछ पता होता |
ग़ज़ल तो बस ग़ज़ल होती,
न कोई ज़लज़ला होता |
न आती मौत इंसां को
न सोने को मिला होता |
बड़ी उलझन है उलझी सी,
न होती मैं तो क्या होता |
Comment
आभार Kiran Arya जी!
ग़ज़ल तो बस ग़ज़ल होती,
न कोई ज़लज़ला होता |.......नूतन जी एक बेहद ही खूबसूरत ग़ज़ल..........बधाई.........
जी गणेश जी....आप अनुमति कहाँ माँग रहे हैं ....आदेश दीजिए!
नूतन जी यदि अनुमति हो तो उक्त सुधार किये गए मिसरे को आपकी ग़ज़ल में जोड़ दिया जाय |
आभार आशीष यादव जी एवं मोहिनी जी !
bahut hi achchhi ghazal kahi hai aapne.
sabhi she'r kaabil-e-daad hain.
badhai swikaar karen.
आदरणीया नूतन व्यास जी, अपेक्षाकृत छोटी बहर के साथ कहन को संतुलित रखना आसान नहीं होता, यदि एक मिसरा छोड़ दिया जाय तो आपने अपनी इस ग़ज़ल में मुफाईलुन-मुफाईलुन को बहुत ही बढ़िया से निभाया है, ख्याल उम्दा, अब बात करते है बेबहर मिसरा की ..
न मौत आती जो इंसां को,
१२१२ २२२२ २
न सोने को मिला होता |
यदि इस शेर को इस तरह पढ़ा जाय तो मेरे ख्याल से बात बन सकती है ..
न आती मौत इंसां को,
१२२२ १२२२
न सोने को मिला होता |
बहरहाल इस खुबसूरत प्रस्तुति पर दाद कुबूल करे आदरणीया |
मिर्ज़ा ग़ालिब की याद आ गई "ये होता तो क्या होता " | अच्छी गज़ल |
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