निशा के आँचल को समेट
खुद को किरणों में लपेट
क्षितिज पार फैली अरुणाई
बहने लगी पवन बौराई
कोहरे का आवरण हटा
सूरज ने खोले नयन कोर l
नीड़ में दुबके बैठे आकुल
भोर हुई तो चहके खगकुल
खुले झरोखे हवा की सनसन
आकर तन में भरती सिहरन
है नव प्रभात, संदेश नवल
नव उमंग, मन में हलचल
कमल सरोवर पर अलि-राग
काँव-काँव कहीं करते काग
हर्ष से तरु-पल्लव विभोर l
संक्रांति मनाते हैं हिलमिल
खाते हैं आज सभी गुड़-तिल
सबके हैं हृदय मगन-मगन
खुशबू से महके घर-आँगन
भरता धरती का नवल कलस
अमृत लगता गन्ने का रस
तुहिन कणों से भरे अधर
आहट बसंत की चौखट पर
कृषकों के मन लेते हिलोर l
है नीलगगन पर रंग छाया
मौसम पतंग का फिर आया
उड़तीं फरफर रुमालों सी
मंझा लिपटी है बालों सी
झूम-झूम, लहरा, इठला कर
जीत-हार की होड़ लगा कर
ऊपर जाकर उड़तीं नभ पर
गिरती रहती हैं कट-कट कर
छत-मुंडेर हर जगह है शोर l
-शन्नो अग्रवाल
Comment
waah Shannu di kitni khoobsurat rachna hai wah man prfullit ho gya
ब्रिजभूषण जी, सराहना के लिये आपका हार्दिक धन्यबाद.
bahut hi sundar nav git ,
सौरभ जी, रचना पर आपकी सराहनीय टिप्पणी पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया. आपका हार्दिक धन्यबाद.
आपने प्रकृति की मनोहारी छटा का सुन्दर वर्णन किया है, शन्नोजी. विलम्ब से आपकी रचना पर आ रहा हूँ, इस हेतु क्षमा.
संक्रान्ति-काल के अद्भुत वर्णन हेतु आपको हार्दिक बधाई.
आलोक जी, आपने रचना की सराहना की इसे जानकर मन बहुत मुदित है. आपका हार्दिक धन्यबाद.
वासंती अभिव्यक्ति का सुन्दर किया प्रयास|
धन्यवाद दे आपको, आलोकित मधुमास..
धन्यबाद किरन..और आपको भी ढेरों शुभकामनायें.
संक्रांति मनाते हैं हिलमिल
खाते हैं आज सभी गुड़-तिल
सबके हैं हृदय मगन-मगन
खुशबू से महके घर-आँगन.........वाह दी सुंदर भाव, आपको और सभी मित्रो को मकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाये....
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