ग़ज़ल- गालियों से पेट भर रोटी नहीं तो क्या हुआ
ये व्यवस्था न्याय की भूखी नहीं तो क्या हुआ ,
गालियों से पेट भर रोटी नहीं तो क्या हुआ |
पार्कों में रो रही हैं गांधियों की मूर्तियाँ ,
सच की इस संसार में चलती नहीं तो क्या हुआ |
वो उसूलों के लिए सूली पे भी चढ़ जाएगा ,
आपकी नज़रों में ये खूबी नहीं तो क्या हुआ |
खुद ही तिल तिल जलना है और चलना है संसार में ,
आंधियां में बातियाँ जलती नहीं तो क्या हुआ |
ये सियासत बेहयाई का सिला देगी ज़रूर ,
अबके किस्मत आपकी चमकी नहीं तो क्या हुआ |
पुलिस चौकी दारू के ठेके खुले हर गाँव में ,
सड़क पानी खाद और बिजली नहीं तो क्या हुआ |
चल खड़े हो एक जुट हम बादशा को दें जगा ,
घंटी दिल्ली में कोई पगली नहीं तो क्या हुआ |
आप शीतल पेय की सौ फैक्ट्रियां लगवाइए ,
कल की नस्लों के लिए पानी नहीं तो क्या हुआ |
नाव कागज़ की बनाना छोड़ना फिर ताल में ,
वो कमी अब आपको खलती नहीं तो क्या हुआ |
गिल्ली डंडे गुड्डी कंचे कॉमिकों से दोस्ती ,
आज के बचपन में ये कुछ भी नहीं तो क्या हुआ |
सड़क से सरकार तक इनकी सियासत है मिया ,
पत्थरों की मूर्तियाँ सुनती नहीं तो क्या हुआ |
इस तमाशे का है आदी हाशिये का आदमी ,
लेती है सरकार कुछ देती नहीं तो क्या हुआ |
एक दिन वो आएगा उनकी लगेगी तुमको हाय ,
आज उनके हाथ में लाठी नहीं तो क्या हुआ |
इस तरक्की ने बदल डाले हैं त्योहारों के रंग ,
अबके होली में मिली छुट्टी नहीं तो क्या हुआ |
उम्र कैसे बीतती है आईनों से पूछना ,
खुद को ही अपनी कमी दिखती नहीं तो क्या हुआ |
{ ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक - 20 में शामिल मेरी ग़ज़ल }
Comment
अत्यंत ही प्रेरणादायी टिप्पणी है आपकी आशुतोष जी. आपके शब्दों में यथार्थ और अनुभव खुल कर बोल रहे हैं.
भाई अभिनवजी की ग़ज़लों की तासीर ही अलग है. और इसके हम सभी को सात्विक अभिमान है. यही आपके शब्दों से परिलक्षित है.
सादर
आज की व्यवस्था पर चोट करती रचना के लिए
बधाई स्वीकारें
भाई अभिनवजी, आपकी इस ग़ज़ल को हम सद्यः सम्पन्न तरही मुशायरे अंक - २० में सुन चुके हैं और भरपूर बधाई दे चुके हैं.
उक्त मुशायरे में इंगित सुधारों के अनुसार यदि इस पुनर्प्रस्तुतिकरण के पूर्व काम हुआ होता तो इस प्रस्तुतिकरण का अर्थ कई अर्थों में सभी पाठकों के लिये अत्यंत लाभकारी होता. मेरा ऐसा मानना है.
मालूम ही है, तरही मुशायरा अंक - २० में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन भाई राणा जी ने प्रस्तुत कर दिया है -
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:195722?xg...
श्री अरुण जी, बहुत सुंदर रचना, एक से बढ़ कर एक. "ये व्यवस्था न्याय की भूखी नहीं तो क्या हुआ" बहुत जबरदस्त आगाज़. वाह वाह वाह!!
आदरणीय 'अभिनव' जी यथार्थता का मार्मिक चित्रण करती ग़ज़ल मन को भा गयी ,बधाई स्वीकार करें
आदरणीय 'अभिनव' जी! आपकी ग़ज़ल व्यवस्था पर करारा कटाक्ष कर रही है| बहुत अच्छी लगी मुझे| सादर,
सड़क से सरकार तक इनकी सियासत है मिया ,
पत्थरों की मूर्तियाँ सुनती नहीं तो क्या हुआ |
खुद ही तिल तिल जलना है और चलना है संसार में ,
आंधियां में बातियाँ जलती नहीं तो क्या हुआ |
उम्र कैसे बीतती है आईनों से पूछना ,
खुद को ही अपनी कमी दिखती नहीं तो क्या हुआ |
SUNDAR BHAAV, SUNDAR PRASTUTI
BADHAI, AADARNIYA ARUN JI.
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