भावनाओं का दमन,
संवेदनाओं का संकुचन देख रहे हैं
आदान-प्रदान सब गौण हुए
अब ऐसा चलन देख रहे हैं |
स्वार्थ के बढ़ते दाएरे,
जन- जन को छलते देख रहे हैं
हिंद का वैभव स्विस बेंकों में
हक को जलते देख रहे हैं |
भ्रष्टाचारी को जीवंत,
संत ज्ञानी को मरते देख रहे हैं
अगन उगलते सूरज में,
नम धरा झुलसते देख रहे हैं |
दूध की नदियाँ उनके प्रांगण,
ये सूखी प्याली देख रहे हैं
कनक की रोटी उनके घर में
ये खाली थाली देख रहे हैं |
देख के विघटित स्वर्ण चिरैया,
शत्रु जाल फेंकते देख रहे हैं
भावी देश की सूरत को हम
नभ दर्पण में देख रहे हैं |
*****
Comment
Ashok kumar ji haardik dhanyavaad.
यथार्थ पर सुन्दर रचना. बधाई.
सबसे बड़े गणतंत्र में भ्रष्टतंत्र अब देख रहे हैं,
देश की बदहाली का हाल खड़े हम देख रहे हैं.
bahut bahut hardik aabhar Ganesh ji.
क्या कहने ,आदरणीया राजेश कुमारी जी, गागर में सागर भरने का प्रयास आपने किया है, बहुत ही सुन्दर ख्याल, बधाई आपको |
shukria chaatak ji.
खूबसूरत उदगार! हार्दिक बधाई!
bahut bahut aabhar Neeraj ji.
Ravindra Nath ji is sundar vishleshan ke liye hardik aabhar.
Pradeep Kumar ji bahut aabhari hoon.
aadarniya mahodaya ji, sadar abhivadan , vastvikta darshati rachna . badhai.
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