जिनसे इंसां का भी दर्जा नहीं पाया हमने,
मुद्दतों ऐसे ही इंसानों को पूजा हमने.
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प्यार की पौध के मिटने से तो मर जायेंगे,
खून के अश्क से बागान को सींचा हमने.
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हाँ उजाला नहीं होना मेरी इन राहों में,
शम्स ए पुरनूर से पाया ये अँधेरा हमने.
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हमने मुंसिफ के भी हाथों में जो खंजर देखे,
कांपता दिल था मुक़दमा नहीं डाला हमने.
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वहशी लोगों में किसी कांच से नाज़ुक हम थे,
हुज्जतों से बड़ी दामन ये बचाया हमने.
(कमी लगी तो इस्लाह की गुज़ारिश है....)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया वीनस भाई
सुन्दर भाव
बेहतरीन कहन
बधाई स्वीकारें
@राणा प्रताप जी!
तहे दिल से शुक्रिया आपका... :)
एक मतले की कमी..... मतले में कुछ कमी रह गयी या मुझे एक मतला और कहना चाहिए था .. थोरा इशारा करें तो समझने आसानी हो जाये...
@संदीप जी!
आपको मेरी कोशिश पसंद आई मसर्रतों का मुकाम है मेरा... बहुत बहुत शुक्रिया
@प्रदीप कुमार जी! शुक्रिया आपका
अच्छी गज़ल कही है इमरान भाई| मुकद्दमे वाला शेर अच्छा लगा| एक मतले की कमी भी खली|
हाँ उजाला नहीं होना मेरी इन राहों में,
शम्स ए पुरनूर से पाया ये अँधेरा हमने
वाह इमरान भाई... क्या ख़ूब ग़ज़ल कही आपने| ख़ास तौर पर इस शेर में जो विरोधाभास अलंकार है वो मुझे बड़ा भाया| मुबारकबाद क़ुबूल करिये| :-))
हमने मुंसिफ के भी हाथों में जो खंजर देखे,
कांपता दिल था मुक़दमा नहीं डाला हमने.
.bahut khoob bhai ji. badhai.
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