काँटे, काँटे क्यों बनते हैं,
बन सकते हैं जब वो फूल,
एक डाल पर एक रस पीकर,
कैसे बन जाते हैं शूल?
चुभने में क्या मज़ा रखा है,
क्यों नोकों से सजा रखा है,
क्यों निष्ठुर निर्मम तन लेकर.
निश्छल मन भीतर छिपा रखा है?
नहीं आस है भँवरों की,
ना तितली को छूने की चाह,
सूखा निर्मम जीवन चुन कर,
किसका दर्द छिपा रखा है?
मुझको शोषित सा लगता है,
निर्धन आकुल सा रहता है,
निर्मम पुष्पों के समाज में,
घृणित उपेक्षित सा लगता है।
दायित्व निभाते हैं ये तन से,
ना कोई आशा ना कोई सपना,
पत्थर तक ना चाहे शूल,
सब बचते हैं ना कोई अपना।
इनको भी तो साथ चाहिए,
अरे कोई तो सौगात चाहिए,
इन काँटों ने छेड़ी है जंग,
उनको खोया मान चाहिए।
कलम से पूरा हिसाब चाहिए।
Comment
चुभने में क्या मज़ा रखा है,
क्यों नोकों से सजा रखा है,
क्यों निष्ठुर निर्मम तन लेकर.
निश्छल मन भीतर छिपा रखा है?
बहुत सार्थक पंक्तियाँ नीरज जी.बधाई.
काँटे, काँटे क्यों बनते हैं,
बन सकते हैं जब वो फूल,
एक डाल पर एक रस पीकर,
कैसे बन जाते हैं शूल?
चुभने में क्या मज़ा रखा है,
क्यों नोकों से सजा रखा है,
क्यों निष्ठुर निर्मम तन लेकर.
निश्छल मन भीतर छिपा रखा है?
द्विवेदी जी यही तो है पहेली जिन्दगी की साथ साथ रहते भी कब कौन क्या बन जाएँ ....सुन्दर ....इनको भी तो साथ चाहिए बिलकुल .अरे कोई सौगात चाहिए ..अच्छा सन्देश . शुभ कामनाएं ..जय श्री राधे -भ्रमर ५
सुन्दर कामनाओं की रचना हेतु हार्दिक बधाई नीरज जी -
नहीं आस है भँवरों की,
ना तितली को छूने की चाह,
सूखा निर्मम जीवन चुन कर,
किसका दर्द छिपा रखा है?
सशक्त भावपूर्ण पंक्तियाँ वाह !!
आपकी इस रचना की गेयता और संवेदनशीलता आकर्षित करती है, नीरज जी.
किन्तु, गेयता को दो प्रारूप होते हैं, एक तो स्वराघात में बलात् परिवर्तन कर. दूसरा, शाब्दिक गेयता है, जिसके लिये मात्रिक श्रेणीबद्धता आवश्यक हुआ करती है जिसे रचनाकार स्वाध्याय और सतत अभ्यास द्वारा साधते हैं. आप अपनी रचनाओं में इस दूसरी गेयता के प्रति आग्रही हों तो आपकी रचनाएँ तकनीकी रूप से भी गरिमामय हो सकेंगी.
शुभकामनाएँ और शुभेच्छाएँ.. .
काँटे, काँटे क्यों बनते हैं,
बन सकते हैं जब वो फूल,
एक डाल पर एक रस पीकर,
कैसे बन जाते हैं शूल?
सुंदर काव्य-अभिव्यक्ति. बधाई स्वीकारें नीरज द्विवेदी जी.
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