तुम क्या समझो तुम क्या जानो
है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ?
क्यों है मन आकुल व्याकुल सा
क्यों है तन थका थका सा ये
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ
क्यों हूँ रूठी हूँ दुनिया से मैं
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?
प्रश्नों की ठेलम ठेली है !
हो चकित देख कर मुझको तुम
हो भ्रमित कभी झुंझलाते हो
करते हो तुम भी प्रश्न कई
पर कभी नहीं सोचा तुमने
पर कभी नहीं समझा तुमने
उन प्रश्नों का उत्तर है ये
मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से है
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
Comment
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ? Achhi lagi yeh rachna !! Monica ji !
मोनिका जी, आपकी प्रस्तुत रचना प्रवाहमान है तथा इसका कथ्य उच्च है. इस अतुकांत कविता में शब्द-संयोजन भी आपने बहुत ही अच्छी तरह से निभाया है.
इस भूमिकापरक अभिव्यक्ति पर ढेरों बधाई व शुभकामनाएँ स्वीकारें ...
क्यों है मन आकुल व्याकुल सा
क्यों है तन थका थका सा ये
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ
मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से है
माँ की ममता को नमन है और मोनिका जी आपकी इस रचना की भी जितनी तारीफ की जाए कम है बहुत सुन्दर भाव संयोजन हार्दिक बधाई !!
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?
प्रश्नों की ठेलम ठेली है !
सुन्दर अभिव्यक्ति मोनिका जी शुभकामनायें
आशा की जोत जलाती हूँ
क्यों हूँ रूठी हूँ दुनिया से मैं
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
बहुत सुन्दर| बधाई मोनिका जी |
bahut hi sunder abhivyakti. Badhayee Monika ji.
मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से है
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं....माँ होकर स्त्री सब दुनिया को भूल जाती है अपने को भूल जाती है उसकी परिधि में सिर्फ अपने बच्चों के सुख दुःख ही रह जाते हैं ...खूब वर्णन किया है एक माँ एक नारी के अस्तित्व का ..बहुत सुन्दर| बधाई मोनिका जी |
माँ की पीड़ा का वर्णन ! अद्भुत शब्दावली ! दिल को पिघला दिया ! आँखे भर आई !
माँ तुम बहुत याद आ रही हो !
बहुत सुन्दर रचना !
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