जिसका अंक है कोई, न रूप आकार है,
जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,
कणों कणों से एक सुर में ये पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
ये नगर ये गाम गाम, वन सघन ये धाम धाम,
भोर ये खिली खिली, लालिमा लिए ये शाम।
ये सूर्य चंद्र ये धरा, समुद्र मोतियों भरा।
ये पंछी पंख खोलते, वृक्ष वृक्ष डोलते।
धरती से व्योम तक.., जंगल और पुष्प से,
दूर दृष्टि छोर तक.., दृष्टि अति अल्प से
जब एक एक सृजन से वो खुद साकार है
फिरे तू क्यों ये पूछता, ये किसका कार है!
कणों कणों से एक सुर में ये पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
Comment
swarg si anubhuti hoti hai aisi kavita padhkar...
जिसका अंक है कोई, न रूप आकार है,
जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,
कणों कणों से एक सुर में ये पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
बहुत सुन्दर प्रकृति की छटा बिखेरती कविता बहुत खूब
प्रिय इमरान जी, बहाल उसके सिवा और कों हो सकता है महान चित्रकार , रचनाकार, सृजन हार, या फिर तारणहार ! बहुत ही सुन्दर चित्रण उस मायावी प्रभु की! नमन उनको , गीत को और आपको भी!
इमरान जी बहुत ही sunder गीत .मैं सरिता दी से सहमत हूँ बिलकुल वही गीत अनायास याद आ गया
बहुत-२ बधाई आपको ऐसे ही लिखते रहें
इमरान खान जी, नमस्कार,
आप की सुन्दर सी छायावादी कविता पढ़ के मुझे एक बहुत पुराना गीत याद आ गया.....
हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला यह गगन
के जिस पे बदलो की पालकी उड़ा रहा पवन दिशाए देखो रंग भरी , चमक रही उमंग भरी
यह किस ने फूल फूल पे किया सिंगार है
यह कौन चित्रकार है ...बहुत सुन्दर प्रकृति चित्रण..
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