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गुफ्तगू माँ से (मदर्स डे पर )

माँ 
ये कौन सी  सफलता है 
ये कैसा लक्ष्य है
जो ले आया है
तुमसे दूर 
बहुत दूर
ये कैसी तलाश है
कैसा सफ़र है
की मैं चल पड़ी हूँ 
अकेले ही
तुम्हे छोड़ कर
ये कैसी जिद है मेरी
ठुकरा कर छत्र छाया तेरी
निकल पड़ी हूँ
कड़ी धूप में झुलसने को
पर जानती हूँ
तेरी दुआएं है  साथ मेरे
जो चलती है संग 
मेरा साया बनकर 
और तपिश को
शीतल कर देती है
ठंडी बयार बन कर
आती है याद मुझे तू
हर दिन
हर रात
फिर से तेरे आँचल में छुपने का
दिल करता है
फिर से तेरे हाथो की  
बनी रोटियां खाने को
जी करता है
पर तुमने ही कहा था न माँ
चिड़िया  के बच्चे
जब उड़ना सीख जाते हैं
तो  घोसलों को छोड़
लेते हैं ऊँची उड़ान   
और दूर निकल जाते है
मैं भी तो
निकल आई हूँ
बहुत दूर
लौटना अब मुमकिन नहीं
क्योंकि
राहें कभी मुडती नहीं
और प्रवाह नदी का
उलटी दिशा में
कभी बहता नहीं

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Comment by Bhawesh Rajpal on May 13, 2012 at 8:58am

 

मैं भी तो
निकल आई हूँ
बहुत दूर
लौटना अब मुमकिन नहीं
क्योंकि
राहें कभी मुडती नहीं
और प्रवाह नदी का
उलटी दिशा में
कभी बहता नहीं 
माँ से विछोह की मजबूरी को सुन्दर शब्दों में पिरो दिया है !   हार्दिक बधाई  महिमा जी  !
Comment by MAHIMA SHREE on May 12, 2012 at 8:53pm
हार्दिक आभार आदरणीय  नीलांश जी व् आदरणीय अजय जी
Comment by MAHIMA SHREE on May 12, 2012 at 8:51pm
हार्दिक आभार आदरणीय अशफाक जी  
Comment by Nilansh on May 12, 2012 at 8:40pm

aapne bahut accha likha 

Comment by AjAy Kumar Bohat on May 12, 2012 at 8:26pm

bahut sundar

Comment by ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi) on May 12, 2012 at 8:05pm
फिर से  तेरे आँचल में छुपने का
दिल करता है
फिर से तेरे हाथो की  
बनी रोटियां खाने को
जी करता है
bahot khub MAHIMA SHREE

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