दुनिया यही सिखाती हरदम, सीख सके तो तू भी सीख।
आदर्शों पर चलकर हासिल, कुछ ना होगा, मांगो भीख।
तीखे कर दांतों को अपने, मत रह सहमा औ मासूम।
जंगल का कानून यही है, गीदड़ बन जा पी खा झूम।
उनकी तो किस्मत है मरना, हिरण बिचारे सब अंजान।
कदम कदम पे गहरे गड्ढे, गिर गिर गंवा रहे हैं जान।
शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।
भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज।
हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।
कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।
कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।
वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।
चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।
छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।
_____________________________________________
- संजय मिश्रा 'हबीब'
Comment
हार्दिक आभार स्वीकारें आदरणीय सुरेन्द्र कुमार भ्रमर जी...
हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।
कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।
प्रिय मिश्र हबीब जी ..बहतु आनंद आया ढोल की थाप और इस जोशीले आल्हा में ..गजब का व्यंग्य और सच ...काश भ्रष्टाचारियों के कान कौए ले जायं ..बधाई हो
कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।
वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।
आदरणीय सौरभ भईया, आपके शब्द सकारात्मक सृजन की प्रेरणा होते हैं.... अनगढ़ प्रयास पर आपकी सराहना पाकर अनुज प्रफुल्लित हो गया है... स्नेह और मार्गदर्शन बनाए रखें गुरुवर.
सादर.
इस नगीने से मैं अबतक दूर रहा इसका खेद है. प्रवहमान पंक्तियों और सन्निहित भावों से यह आल्हा संग्रहणीय बन गया है. हालाँकि पारंपरिक आल्हा को यह उसतरह इंगित नहीं करता हैं जहाँ अतिशयोक्ति या अतिरेक को अतिविशिष्ट महत्ता मिली होती है. परन्तु, उन संदर्भों को भी प्रस्तुत छंद उदारता से छूता चलता है. यों, ये अलग बात है, कि जिसे अतिरेक के रूप में कहने की कोशिश हुई है वह संदर्भ आज की कटु सच्चाई बन कर विद्यमान है. जैसे, कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान
इस बंद के लिये विशेष बधाई स्वीकार करें -
देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।
हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल ॥
आ भाई उमाशंकर मिश्र जी सादर आभार स्वीकारें.
आ भाई आशीष जी... आभार स्वीकारें.
आदरणीय भाई भ्रमर जी सादर स्वागत आपका....
प्रयास को सराहने हेतु सादर आभार स्वीकारें.
आदरणीय अविनाश भईया आपका अलग अंदाज उत्साहित करता है... ||सही गुस्सा...क्या हल?|| आल्हा के अंतिम पद में इसी हल की और संकेत करने का प्रयास किया है...
सीखने.... हे भगवान!!! क्या कह दिया आपने...??
आप रायपुर जरुर पधारें.... आपकी संगत/आपका स्वागत करना मेरा सौभाज्ञ होगा... सादर।
आदरणीया राजेश कुमारी जी, प्रयास को सराहने के लिए सादर आभार.
आपको यह प्रयास रुचा...सादर आभार भाई योगी सारस्वत जी
हाँ आपके द्वारा लिखित 'गजल' शब्द पर थोड़ा अटक जरुर गया :))
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online