अग्नि प्रज्वलित हुई धरा पर
परिवर्तन एक गढ़ने को
चला काफिला जनतंत्री का
अब नव चिंतन करने को
नकली रूपया नकली वस्तु
खेल हो रहा ठगने को
महंगाई है खून चूसती
बढ़ रही पिसाचिन मरने को
आ रहे विदेशी ठगने अपने
अर्थ तंत्र को चरने को
भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ने को
बनो पतंगा जलने को
वेग हमारा तूफानों का
खड़े युद्ध हम करने को
कर्मवीर बन बढ़े चलो अब
आग नहीं अब बुझने को
प्रश्न खड़ा जीवन मृत्यु का
आर-पार कुछ करने को
लायेंगे बदलाव नया अब
संकल्प ह्रदय में धरने को
परोपकारिता हो गंगा जैसी
जन जन मन में बहने को
Comment
"परोपकारिता हो गंगा जैसी जन जन मन में बहने को"बहु खूब लिखा है भाई श्री उमाशंकर मिश्राजी, समय की पुकार को
कर्मवीर बन बढ़े चलो अब
आग नहीं अब बुझने को
प्रश्न खड़ा जीवन मृत्यु का
आर-पार कुछ करने को
बहुत खूब लिखा है, जोश से भर देनेवाली पंक्तियाँ हैं!
आदरणीय सौरभ जी आपका प्रोत्साहन
हमारे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं है
आपका आभार ...लिखते तो हमें वर्षों हो गए
परन्तु पहाड के नीचे अब आये हैं
यहाँ ज्ञानी जनों के बीच बहुत कुछ जानने और सीखने को मिल रहा है
आपकी प्रस्तुत कविता समाज के वर्तमान ऊहापोह को इंगित करती प्रतीत है. आपकी उपस्थिति बनी रहे, शुभेच्छाएँ.
प्रिय अलबेला जी
आपकी दाद हमारी लिखने...... की "खाज" को बनाये हुवे है
धन्यवाद आपका शुक्रिया
आशीष जी धन्यवाद आपकी बधाई के लिए..
बेहतरीन, भावपूर्ण रचना। बधाई स्वीकारिये
waah waah umashankar mishra ji.............aag bhar di hai aapne shabdon me
abhinandan !
महिमा जी धन्यवाद
अग्नि प्रज्वलित हुई धरा पर
परिवर्तन एक गढ़ने को
चला काफिला जनतंत्री का
अब नव चिंतन करने को
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी धन्यवाद आपका
रेखा जी शुक्रिया
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