मुक्तिका:
मुस्कुराते रहो...
संजीव 'सलिल'
*
मुस्कुराते रहो, खिलखिलाते रहो
स्वर्ग नित इस धरा पर बसाते रहो..
*
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..
*
बाग़ से बागियों से न दूरी रहे.
फूल बलिदान के नव खिलाते रहो..
*
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
*
नफरतें दूर कर प्यार के, इश्क के
गीत, गज़लें 'सलिल' गुनगुनाते रहो..
***
Comment
//गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो.. //
वाह वाह वाह अति सुन्दर विचार, अति सुन्दर मुक्तिका, बधाई स्वीकार करें आचार्यवर.
सौरभ जी, उमाशंकर जी, राजेश कुमारी जी, रेखा जोशी जी, प्रदीप जी, सूरज जी, अलबेला जी
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
आचार्यवर, आपकी मुक्तिका के बंद बेहतर लगे हैं. विशेषकर, यह बंद -
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..
किन्तु, बाग से बागियों से न दूरी रहे की पंक्ति में न जाने क्यों मैं उलझ गया हूँ.
सादर
सुन्दर भाव
उद्देश्य पूर्ण बधाई सलिल जी
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
* वाह कितनी बड़ी बात कही सलिल जी ...बहुत प्यारी मुक्तिका बहुत सुन्दर
आदरणीय संजीव जी,सादर नमस्ते ,
आदरणीय सलिल जी, सादर अभिवादन
सुखी जीवन का सुन्दर मूल मन्त्र कितनी खूब सूरती से दिया है. बधाई
संजीव जी बहुत सुंदर सुंदर पंक्तियाँ पिरोयी हैं आपने इस रचना में । बहुत खूब !! बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें !
श्रद्धेय संजीव वर्मा 'सलिल' जी
आपने सार की बात कह दी ........धन्य हो . बहुत ही शानदार रचना
इन पंक्तियों ने तो मन में घर बाना लिया -
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो.
बधाई !
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