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आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े


आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े,
दिल पे चोट खाए दिवाने निकल पड़े,

बसती है तेरी चाहत सनम मेरी रूह में,
सूखे लबों की प्यास बुझाने निकल पड़े,

चाहतों के मामले फसानों में कैद है,
इल्जामों का पिटारा दिखाने निकल पड़े,

यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,

होता है दर्द अक्सर तेरे बदले मिजाज़ से,
आज अपने साथ तुझको मिटाने निकल पड़े,

उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में कश्तियाँ को बसाने निकल पड़े,

वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े,

देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े,

कहती है हूँ मैं दरिया, तुम डूब जाओगे,
फिर भी तेरे शहर में साँसे डुबाने निकल पड़े.......

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Comment by अरुन 'अनन्त' on July 6, 2012 at 10:41am

शुक्रिया प्रदीप भाई

Comment by Pradeep Kumar Kesarwani on July 5, 2012 at 11:52pm

यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है, ...अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,....दिल छु लिया.. बधाई हो आपको ....

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 5, 2012 at 10:39am

आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 5, 2012 at 10:37am

यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है, 
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,

 देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े--------    अरुण शर्मा जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने इन दो शेरों पर तो कुछ ज्यादा ही दाद कबूल करें पूरी ग़ज़ल पर बधाई 

Comment by UMASHANKER MISHRA on July 4, 2012 at 11:22pm

वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े, बहुत ही सुन्दर भाव युक्त इस लाईन में तो सचमुच खजाना भर दिया

Comment by Bishwajit yadav on July 4, 2012 at 8:32pm
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े,
देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े,
कहती है हूँ मैं दरिया, तुम डूब जाओगे,
फिर भी तेरे शहर में साँसे डुबाने निकल पड़े.
वाह क्या बात है बहुत सुन्दर टच माई दिल
Comment by Yogi Saraswat on July 4, 2012 at 5:01pm

उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में कश्तियाँ को बसाने निकल पड़े,

वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े,

बहुत खूब ! सुन्दर शे'र और अल्फाजों से सजी हुई बढ़िया ग़ज़ल

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 4, 2012 at 12:16pm

आदरणीय रेखा जी , बहुत- बहुत शुक्रिया.

Comment by Rekha Joshi on July 4, 2012 at 12:10pm

अरुण जी 

देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े, समर्पण का सुंदर भाव ,बहुत खूब 

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