अँधेरा मुझमे सो रहा है, माँ तेरे बिन,
डर को मुझमे बो रहा है, माँ तेरे बिन,
घर में घुस आईं हैं, धूल लेकर आंधियां अब,
कि जीना मुस्किल हो रहा है, माँ तेरे बिन,
ठोकरें लौट आई हैं, भर कर पत्थर राहों में,
नज़रों से उन्जाला खो रहा है, माँ तेरे बिन,
उखाड़ दी खिड़कियाँ, दरवाजा भी तोड़ डाला,
जहाँ घर का सामान ढो रहा है माँ तेरे बिन,
तकलीफ कैसे बांधूं, शब्दों में नहीं ताकत,
अश्क मुझको धो रहा है, माँ तेरे बिन,
उंगली पकड़ चला दो, क़दमों में नही बल है,
देख तेरा बेटा रो रहा है, माँ तेरे बिन.......
Comment
आदरणीय अम्बरीश जी, आपको ये रचना पसंद आई बहुत आभारी हूँ. जैसे की आपने मुझे बताया है मैं नित नियम प्रयास कर रहा हूँ त्रुटियों को दूर करने में. ओ. बी. ओ. से जुड़ने के बाद बहुत कुछ सीखा है.
//उंगली पकड़ चला दो, क़दमों में नही बल है,
देख तेरा बेटा रो रहा है, माँ तेरे बिन.......//
अरुण जी, माँ ही सब कुछ है इसे ...बहुत अच्छा प्रयास किया है आपने ! बधाई स्वीकारें ! फिर भी इस रचना में शिल्प के स्तर पर सुधार की बहत गुंजायश है....सतत अभ्यास जारी रखें धीरे-धीरे शिल्प भी आ जाएगा ..... . सस्नेह
आदरणीय भ्रमर जी, मित्र आशीष जी बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीया राजेश कुमारी जी, रेखा जी और दीप्ति जी. आपको अच्छा लगा और आपने सराहना की. शुक्रिया
माँ के बिन, जिन्दगी सचमुच अवलम्बहीन लगने लगती है। आपने बखूबी लिखा है। बहुत-बहुत बधाई।
सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई अरुण जी
तकलीफ कैसे बांधूं, शब्दों में नहीं ताकत,
अश्क मुझको धो रहा है, माँ तेरे बिन,
उंगली पकड़ चला दो, क़दमों में नही बल है,
देख तेरा बेटा रो रहा है, माँ तेरे बिन....
बहुत ही सुंदर रचना बधाई आपको
घर में घुस आईं हैं, धूल लेकर आंधियां अब,
कि जीना मुस्किल हो रहा है, माँ तेरे बिन,
ठोकरें लौट आई हैं, भर कर पत्थर राहों में,
नज़रों से उन्जाला खो रहा है, माँ तेरे बिन,
अनन्त जी ...सटीक हालात दर्शाती और जोश भरती रचना ...शब्दों पर थोडा ध्यान रखें ...बधाई
.मुश्किल , उजाला
बहुत भावनात्मक दिल को छू गई रचना
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